Friday 16 September 2011

होता ज़रूर है....

1)
तारीफ भरी नज़रों से,
देखा जो उन्होंने,
हमें बादलों पर बैठे हुए ,
जिगर को एक मुश्त सुकून मिला ,
वो बात दीगर थी ,
ना वो जान पाए ,
ना हमसे क़ुबूल किया गया ,
कटी पतंगे भी कुछ वक़्त ,
आसमान में रहती ज़रूर हैं ,,,,,

2)
वो हमें समझ बैठे
पहली मुलाकात में ,
कोमल , निर्मल , साफ़ ,
पानी का नदिया  ,
हमें भी अच्छा लगा ,
लेकिन शायद ना वो समझे,
ना हम समझा पाए ,
नदिया  चाहे जितना भी ठहरे ,
धीमे धीमे बहती ज़रूर है ,,,,,

3)
देख कर हमें ,
एक रोज़ कही अचानक ,
हया से मजबूर हो कर
जो पलकें झुका लें थीं उन्होंने ,
आज तक असर है उसका ,
बात ये और थी के
फिर ना कुछ कहा उन्होंने लबों से,
लेकिन झुकी ही हो फिर भी
एक नज़र कुछ कहती ज़रूर है ..,,,

4)
चाहे जितनी भी खुशियाँ
ला कर रख दो क़दमों में
चाहे जितने भी अरमान
पूरे कर दो इक पल में ,
चाहे जितना खुश हो जाये
वो इक जान उस पल में .
चाहे जितना भी कम कर दो
ग़म उस नादाँ सी जान का
वो औरत ही है जो हर पल ,
कुछ ना कुछ सहती ज़रूर है...

घर ,,, पुराना घर ..

पुराना घर जब आज फिर
नज़रों के सामने से गुज़रा
यकायक यकीन ना हुआ
कदम चल पड़े भीतर ,
अन्दर का नज़ारा बड़ा ग़मगीन था ,
जो था वो बिखरा हुआ
और बेहद संगीन था
वो दरवाज़े अब थोडा
बुज़ुर्ग हो चले थे ,
लेकिन आने वालो का एहतराम
और जाने वालो को
आवाज़ देना नहीं भूलते
वो खिड़कियाँ आज भी
हवा के इंतज़ार में
पत्ते की तरह हिलती रहती हैं
फड़फड़ाती  रहती हैं
और एक कोने में एक छोटा सा
स्टूल पड़ा था
जैसे घर का पुराना वफादार हो कोई
जब बुलाओ चला आता हो,
साथ ही एक बेहद पुरानी
दरख़्त के टुकडो से बनी
एक मेज़ रखी है बीचो बीच
जिनसे जुडी हैं अनगिनत यादें
टूटी हुयी सी उस मेज़ पर
आज बरसो बाद हाथ फेरा
तो लगा उसमे मुझसे
ज्यादा जान बाकी है,
ज्यादा सब्र है,
ग़म को छुपाये रखने का,
आज भी उस पर
पेंसिल से बनाये हुए कार्टून
साफ़ झलकते हैं ,
माँ के ऐनक की परछाईं
अब तक वैसी ही है
वो छुटकी का उसके
नीचे छुपना , मेरा ढूंढना
और माँ का एक चपत लगाना
बड़े दद्दू की नाश्ते की
प्लेट का अक्स वैसे ही सलामत है
जैसा उस रोज़ था ,
साथ में वो भी है
तीन टांगो वाली कुर्सी
एक पाया किचन के कोने
में पड़ा है सालों से,
और तो सब था
एक मैं ही नही था
उस मेज़ के पास
और आज भी
और तो सब है
बस एक मैं ही नहीं हूँ
उस मेज़ के पास

नदी और समंदर ...

इक दिन सागर बोला नदी से,
तू क्यों मुझमे आकर मिलती है,
आखिर मैं तनहा अकेला ,
नमक का ढेर ही तो हूँ मैं ,
खुद में सिर्फ चंद सीपियाँ ,
और मोती ही तो संभाले रखता हूँ
और तू ज़िन्दगी से भरी,
उछलती , मचलती,
मुडती, तेज़ चलती,
लोगो से मिलती, जीवन देती है ,
सबके हाथों को ,
मीठे पानी से भर देती है,
सदियों से सोच रहा हूँ अकेला,
फिर भी समझ नहीं आता है,
आखिर मैं किस काम का ,
और तुझे मुझने मिलना
दुनिया में कौन सिखाता है..
मुस्करायी नदी,
और हौले से बोली,
तुझ में मिलना , सुकून देता है मुझे,
तेरा आकार बढ़ाने का ख्याल ,
जूनून देता है मुझे ,
पर ना जाने क्यों तू
अपने आकार से घबराता है,
अरे ये सब तो,
विधि का विधान कहलाता है ,
मिलते हैं राह में हजारों,
कहते हुए की ,
तेरा मेरा सदियों पुराना नाता है,
जानती हूँ मैं बस इतना ,
ये रिश्ते ऊपर  वाला बनता है ,
मैं तो तुझमें तब तक गिरूंगी,
जब तक तू मुझ सा नहीं हो जाता है,
और याद रख ,
एक दूसरे में खुद को खोना ही
अमर प्रेम कहलाता है...

कीमत..

कैसा तेरा जहाँ, कैसे रवायत तेरी खुदाई में है ,
मिलने पर बगावत है, जशन तो जुदाई में है,
चाहा था नाप ले पल में सारा आकाश उड़कर,
पर कटा कर बैठे हैं, ख्वाबों की कीमत चुकाई यूं है,,,

बहार ठंडा पड़ा है सूरज,आगोश में है आज ज्वालामुखी,
चरागों की आंच भी सहन नहीं होती है अब जिगर में ,
वाह मेरे मौला ,क्या करम किये हैं तूने मुझ पर,
शोले थमा कर हाथों में , लौ ये तूने बुझाई यूं है ,..

हर पल देखता हूँ आखो के  सामने उस चेहरे को
हर पल सोचता हूँ उस चक चौबंद पहरे के बारे में
पहरा हटता हा भी नागवार लगता है दिल को ,
रिहाई तो तेरी कैद में बसी है, वरना कैद तो रिहाई में है ,

महफ़िल ऐसी के कोई आ नहीं सकता दर के इस पार ,
महफ़िल ऐसी के मैं जा नहीं सकता घर के उस पार,
जाना ही कैसा , गर तू नहीं हो वहा पर, कहते हैं लोग,
लगता नहीं सच ,दिल नासमझ हैं जो महफ़िल उसने सजाई यूं है

बूंदे, ....

बूंदे, ये बारिश की बूंदे ,
लगती हैं कुछ ऐसी गोया ,
हमने पा लिया वो टुकड़ा,
आसमां के दिल ना था जो खोया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
बताती हैं  हमको,
कितना बेचैन है ये शफक,
लगता है बरसों से
एक पल भी नहीं सोया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
कहतीं हैं हमसे ,
भटक रहा है एक आवारा,
कहते  हुए,कोई ऐसा ना रोया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
छप्प से गिरती,बताती हैं दुनिया को ,
दर्द के कतरे हैं हम,
मस्तमौला कौन हम सा होया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
सिखाती हैं पल पल ,
दर्द का बोझ बादलों ने ,
ख़ुशी ख़ुशी , घुमते फिरते हैं  ढोया,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
बोलती हैं दुनिया से ,
हम फल हैं उन बदल क पेड़ों के
जिन्हें धरा ने इक साथी की उम्मीद में था बोया ....

Wednesday 7 September 2011

एक पैगाम.. ऊपरवाले के नाम ....

आँखें रोती हैं बेबस, आंसूं नहीं निकलतें हैं,
दिल मासूम तड़पता है यारों के लिए,
वक़्त के ज़ालिम पत्थर, इक बूँद भी ना पिघलते हैं ,

वक्तगी ने पीछे छोड़ दिया है उन लम्हों को ,
कमबख्त दिल ही ना भुला पाया है ,
ज़हन समझाता है बार बार, फिर भी ,
नासमझ दल आज फिर उन यादों को बुला लाया ,

कैसे समझाउं उन्हें ,उनके बिना ये ज़िन्दगी,
बेवजह अधूरी तलाश सी है ,
जिंदा दिखता है ये जिस्म आँखों को,
रूह तो अब इक लाश सी है ,

हो जा थोडा तो मेहरबान ,
आज बस इक बार को ए वक़्त हम पर ,
फिर चाहे ताउम्र ज़लालतें- ज़िल्लतें देना ,
या कर लेना जी भर कर सितम हम पर,

वो यार थे ही ऐसे, जिस्म की जान के जैसे,
फ़कीर को मौला मिले यूं,
ज़मीर को ईमान मिले जैसे ,
पंडित को गीता और मुल्ला की कुरान के जैसे,

गर एक बार दोस्त मिल जायें ,
एक रोज़ को ही  सही, फिर से जी जाऊंगा ,
दो पल खुशियाँ बिखेर कर, अँधेरे की तरह,
सुबह उनके साथ जहाँ से रुखसत हो जाऊंगा .....

Tuesday 6 September 2011

khayalaat : zamane ki aad mein..

हर शहर का एक फ़साना होता है,
हर बाशिंदे का एक ठिकाना होता है,
बेहद ऊँची होती है यूं तो परवाज़ परिंदों की ,
लेकिन शाम ढले शजर पर वापस आना होता है,

एहतराम-ए-जहान किया हमने बहुत,
किसी को खता लगी, किसी को सबाब ,
ज़माने की रवायतें यूं तो हज़ार होती हैं,
लेकिन हर रवायत का एक ज़माना होता है,

एक एक जान के पास है तमाम ज़लालतों की मिल्कियत,
हर बशर को कदम दर कदम ठोकरें खाना होता है,
वजूद पर सवाल करती रहती है जिंदगानी भी,
बिसात क्या है उसकी उसे भी ये बताना होता है ,

अकीदतें अता की ज़माने को जेबें भर के हमने ,
पर खुलूस-ए-ज़िन्दगी मयस्सर ना हुआ ,
खतावार तो वक़्त के नश्तर भी नहीं थे ,
आबशार-ए- लहू में उम्मीदों को, उसे भी नहाना होता है ,

महरुफियत खूब तख्सीम की मालिक ने जहान में ,
मुख्तासिर सा पुलिंदा हमें भी दे दिया होता
पुर्सुपुर्दगी ही बख्श दी होती , मौजों में बहने की,
तस्सव्वुर तक ना करने दिया , क्या जशन दिल का लगाना होता है .
 

Friday 26 August 2011

मेरा हिंदुस्तान...

मेरा पहले वाला हिंदुस्तान कहा है
जिसको के माथा झुकाती थी दुनिया
कह के जगत गुरु बुलाती थी दुनिया
देश का वो आज सम्मान कहा है
वो मेरा पहले वाला हिंदुस्तान कहा है..

यहाँ रोज़ चलती है सुबह शाम गोली
रातें दिवाली सी , दिन जैसे होली,
पश्चिम से आया है कोइसिकन्दर,
पूरब में उठता है ख़ूनी बवंडर
उत्तर में बजता है इस्लामी डंका ,
दक्षिण में धधकती है धू धू कर लंका
लाल चौक में राष्ट्रगान कहा है
वो मेरा पहले वाला हिंदुस्तान कहा है

नानक कि धरती बहकने लगी है ,
फूलों कि घटी दहकने लगी है
सहमी है गंगा , के झेलम डरी है
केसर कि क्यारी लहू से भरी है
यहाँ लक्ष्य भी तो लक्षित नहीं हैं
विदेशी पर्यटक भी सुरक्षित नहीं है
आतंकवाद का लहराता है परचम
बोल देश ! तेरा संविधान कहा है ..
वो मेरा पहले वाला हिंदुस्तान कहा है..
वो मेरा पहले वाला हिंदुस्तान कहा है

ye zindagi bhi ..


उठ गया है भरोसा शफक के रंगों से अब
के अब आब हो चली है ज़िन्दगी भी ,
नशा दर्द का है कि उतरता ही नहीं कम्बखत ,
के अब शराब हो चली है ज़िन्दगी भी ..

हर रोज़ सोचता हूँ छोड़ दूंगा आज,
लेकिन आदत है जो छूटती ही नहीं ,,
के बड़ी ख़राब हो चली है ज़िन्दगी भी

आगे जाऊं या पीछे ,धीमे या तेज़ चलू
मुहाने पर जाकर रुकना ही है
समंदर में जा कर गिरना ही है
के अब दोआब हो चली है ज़िन्दगी भी

चाहता हूँ के अब ख़त्म हो, तब खत्म हो,
सूद ब्याज कि तरह बढती ही जाती है लेकिन,
लगता है पुराना क़र्ज़ चुकाना है कोई ,
और मैं कोई कर्ज़दार..
के अब महाजन का हिसाब हो चली है ज़िन्दगी भी

किसी कोने में पड़ी सी लगती है,
जिस पर बरसो से धूल जमी हो ,
किसी के आने का इंतज़ार है अब
जी करता है कोई आ कर पढ़े
वो बेरंग किताब हो चली है ज़िन्दगी भी..

जिस से आँखें चुराते रहे उम्र भर
जुर्रत ना हुयी नज़रें उठाने कि जिसके सामने
के अब वो रुआब हो चली है ज़िन्दगी भी..
उठ गया है भरोसा शफक के रंगों से अब
के अब आब हो चली है ज़िन्दगी भी ,

परछाइयां

थक गया हूँ तेरी यादों से भागते भागते ,
ना जाने कब रात होगी और ये परछाइयां खत्म होंगी,
हर पल साथ चलता है इक हुजूम मेरे अगल बगल ,
पर इक तेरा साथ है जो मयस्सर ना हुआ,
ना जाने कब तुम आओगे और ये तनहाइयाँ खत्म होंगी,,

दिन रात खलिश सा खलता है ज़ेहन में कुछ,
दिन रात मुझसे मेरी बेताबी ये कहती है,
तुम आओगे तो चैन मिले दो पल को ,
कब तलक यूं इंतज़ार करूँगा  ना जाने ,
ना जाने कब वो पल आएगा और ये बेताबियाँ खत्म होंगी,

 जियें क्यूं  अब ये सोचता हु अक्सर ,
आखिर क्यूं, ज़िन्दगी को तेरा साथ नहीं मयस्सर,
चौथे पहर तक आसमान की सिलवटें गिनता हूँ,
तारों को गिरते पड़ते , जलते बुझते देखता हूँ ,
ना जाने कब आँख लगेगी और ये करवटें -अंगडाइयां कह्तं होंगी ,

ये तुम्हारा ही साया है जो आज तक मुझ पर छाया है,
बेवजूद हूँ, बावजूद इसके मेरी भी इक पहचान है ,
लोग कहता हैं, ये तुम्हारा नाम है,
शायद अब नाम ही बचा है , जिस पर हक है मेरा , क्या पता ?
ना जाने कब तक चलेगा ये सिलसिला , और ये रुसवाइयां ख़त्म होंगी,

अब तो अमावस की रौशनी भी जलने लगी है आँखों को,
अँधेरा भी गर्म उजाले सा पिघलने लगा है पलकों क नीचे ,
मानो आँखों में ताज़ा लावा सा आन पड़ा हो ,
जीना भी सिर्फ इक ज़िम्मेदारी सा लगता है,
तुम्हारी यादों के काफिले को मंजिल दिखने की,
ना जाने कब तुम मंजिल पर  दिखोगे  और ये जिम्मेदारियां ख़त्म होंगी,

बरसों से चल रहा हूँ एक अजनबी सी राह पर,
सफ़र है, हमसफ़र नहीं,हमसफ़र तो बनते हैं राह में ,
पर मंजिल अकेले ही बुलाती है, सुना है ,
इक मौत ही है जिसकी मंजिल ही हमसफ़र बनाना है
ना जाने तुम तुम कब मौत बनोगे और ये दुश्वारियां ख़त्म होंगी ,,

Yaadein.....

Har raat, wahi nazare
Kali chhat,kori ankhein,andhere ka ghana saya
Or fir shuru hoti hai yado ki duad
Unhi kori ankho k samne, kali chhat k niche
Mano kali chhat na ho,cinema ka parda ho
Jis par rangeen yadein apna wajood dikha rahi hain
Yaha se waha daud kar
Aisa roz hota hai
Roz ye yadein mehman bantihain in kori ankho ki
Or suraj ki pehli surkh resham k dor me lipat kar
Bandh kar chali jati hain andhere k sath

Ye yaadein...

वक़्त..

वक़्त की हर सिलवट निशान छोड़ जाती है ,
हर पल में सदियाँ,
ज़र्रे ज़र्रे में जहान छोड़ जाती है,
किसी का न हुआ है ना,
किसी का होगा ये , बेरहम वक़्त ,
जब भी मौका मिला धोखा दिया है इसने ,
सच कहा है किसी ने ,
मौका पड़ने पर ज़िन्दगी भी ,
अपना ईमान छोड़ जाती है ...
वक़्त की हर सिलवट निशान छोड़ जाती है ,

......zindagi...

वक़्त के सितम बड़े संगीन होते हैं ,
गर देखो तो ये भी हसीन होते हैं ,
कभी कोरी काली सी स्लेट,
तो कभी धनक से रंगीन होते हैं ,
कभी तेज़ पीली धूप,
शांत नीले समंदर का रूप,
कभी सुर्ख लहू की गर्मी,
बादलों की श्वेताभ नरमी,
तो कभी सावन से हरे भरे ,
 रंग ज़िन्दगी में हैं भरे
गर पहचानो तो ज़िन्दगी रंगीन है ,\
गर नहीं,
तो स्याह आंसुओ की दास्ताँ,
एक एक पल ग़मगीन है,
जो मुस्करा क जी गए उम्र को तो ज़िन्दगी,
वरना जीने के जज्बे की तौहीन है ,,,..

tasveer....

आज फिर अन्दर से एक आवाजा सुनाई दी ,
फिर से, हौसलों में फिर से एक परवाज़ दिखाई दी ,
पर खोलने फिर मचल गया दिल,
लगता है मंजिल का रास्ता गया है मिल ,
अब ज्यादा दूर नहीं है मजिल ,
बस बढ़ा लू कदम और सब कर लू हासिल ,
दिल की ख्वाहिश भी कितनी भोली होती है,
ना इसके पास हथियार ,ना बन्दूक , ना गोली होती है ,
फिर भी हौसला है उड़ान है,
वो सामने ही मंजिल है , मकान है,
वो तस्वीर, जिसमे हम थे , शिखर था ,
वही पर दिखाई दी ...
फिर अन्दर से एक आवाजा सुनाई दी ,...
फिर अन्दर से एक आवाजा सुनाई दी ,...

सबक....

हम आज जीने का सबक ले कर ही जायेंगे ,
मेहनत की तेज़ धार से काट कर ,
हौसलों से बराबर बाँट कर,
इक कतरा शफक का ले कर ही जायेंगे ,
जीने को जी रहे थे यूँ ही ,
पर जब से मकसद मिल गया ,
सपनो में भी कुछ और बात है ,
आज सपनो को सच करने का तजरबा
और ,
ज़िन्दगी की महक साथ ले कर जायेंगे ,
कोई तो होगा जो ये बता दे,
कहा मिलता है जज्बा जुर्रत का ,
लड़ने की हिम्मत और ,
कायदा मुहब्बत का ,
खुशियों तक जाने वाली सड़क ,
आज साथ ले कर ही जायेंगे ..
हम आज जीने का सबक ले कर ही जायेंगे ,

रात का साया ...

रोज़ रात को,
वो तन्हाई की चादर ,
जब अँधेरे से कदम ताल करती ,
बदन ढकने को,
उतावली हो उठती है,
तब फिर वो यादें
सहारा बनती हैं ,
अकेलेपन से बचाने को ,
आँखों के सामने,
रेंगने लगती हैं ,
हमेशा की तरह ,
और अंतर्मन के चीथड़े का ,
वजूद धीमे धीमे
ख़त्म होने लगता है
मानो सब कुछ ,
मुझे बेबस करने को,
अपने साथ चलने को,
उस काली रौशनी क पीछे,
हमेशा की तरह......

संदूक .

आज अचानक यूं  ही
दिल  के तहखाने में
उतरा तो देखा
तरह तरह की कितनी
यादें पड़ी हुयी हैं
लेकिन उनमे सबसे अलग
तुम्हारे नाम का एक संदूक,
एक कोने में कुछ यूं  रखा है,
मानो कल ही आया हो यहाँ,
खोला तो देखा के ,
तुम्हारी एक तस्वीर है,
एक आहट भी कैद थी,
तुम्हारे पांवों की,
साथ ही एक खनकती हुयी

खिलखिलाहट भी मौजूद थी,
तुम्हारी  खुसबू  के  साथ
तभी  ख्याल  आया
इस  संदूक  पे  ताला  नहीं  है
फिर भी ये  ना जाने क्यों,
बरसों से बंद पड़ा था.....

tumne kaha tha ...

कहा था तुमने
एक रोज़ हमसे
आओगे हमारे पास
सारे बंधन तोड़ के
साड़ी दुनिया छोड़ के
अब तलक बैठे हैं
लगाये उम्मीद
उस एक अदद  रस्ते से
जाने क्या बात है
जो टूटती नहीं है आस
कहा था तुमने
आओगे हमारे पास
गुज़र गए ज़माने
कितने मौसम सुहाने
कुछ बात ज़रूर थी
वो शाम थी ख़ास
जब तुमने कहा था
आँखों सी है ज़िन्दगी
फख्र हुआ था तब
ये सुन कर
लेकिन आज सोचता हूँ
काश
उस रोज़ समझ गया होता
के तुम आँखों का
पानी नहीं रंग देखती हो
पर जब समझ आया
देर हो चुकी थी
अब सिर्फ वो सूनी
पलकें है
और वो राहें हैं उदास ,
कहा था तुमने
एक रोज़ हमसे
आओगे हमारे पास...

aaina .

आज आईने ने
 किया एक सवाल
क्यों है तू उदास
क्यों है इक मलाल
झाँका मैं आइने में
ना वजूद  दिखा ना जवाब
एक साया था गोया ठहरा आब
नज़रें गडा दीं हमने
उस सूने तालाब में
वो चुम्बिश थी उसमे
जो ना थी किसी सैलाब में
ठिठक गए कदम
किसी ने जकड लिया
किसी बे-वजूद ताकत ने
थाम के पकड़ लिया हो
सोचता रहा ना जाने कब तलक
लेकिन बिना ख़त के लिफ़ाफ़े सा
सोच के दायरे से निकला
और फिर एकटक
बेपलक निहारने लगा
उस आईने को ......

देश का सवाल ..

मनमोहनी सरकार
जब आई थी इस बार,
किये थे वादे,
हैं मजबूत इरादे ,
कहा हम देंगे साथ ,
आम आदमी  का ही तो है ,
कांग्रेस का बहुप्रचारित हाथ ,
बोले हमारे पास हैं
पीसी , सिब्बल , शीला , कलमाड़ी और राजा
मिल कर बजायेंगे हम भ्रष्टाचार का बाजा

भूल गए काम की बातें ,
जैसे जैसे समय बीता ,
मन लगा घोटालों में ,
साथ छोड़ चली गीता,
घोटाले हुए कुछ यूं,
कानून संविधान रखा ताक पर,
नहीं रेंगी कान पर जूं,
हर महीने एक नया घोटाला ,
कही आदर्श का असर,
कही शीला का बोलबाला ,
तो कही कोयला हुआ और काला ,
महंगाई के पिंजरे से खुल गया हो ताला,
मानो घोटालो की भी साख हो,
जिसे इन ज़िम्मेदारों ने ही है संभाला ,

फिर जब किया टीम अन्ना ने अनशन,
बोले मनमोहन - बंद करो ये टनटन,
बेकार के काम हैं ये सब,
गाँधी की पार्टी को गांधीवाद मत सिखाओ,
उम्र हो चली है,
जाओ , घर जाकर सो जाओ,
नहीं मिटना इन सब से भ्रष्टाचार
लायेंगे हम अब अपना लोकपाल ,
करेंगे सबका बेडा पार,

कहते हैं वो- संसद सबसे ऊपर है,
जनता गयी तेल लेने ,
मैडम सबसे सुपर हैं ,
जब कहते हैं वो,
हम भ्रष्टाचारियों को नहीं छोड़ेंगे ,
उनका मतलब "उनके " साथ से होता है,
ये सिब्बल - तिवारी क्या जाने ,
एक गरीब कब कब और
 कितने तरह के आंसू रोता है
बोलते हैं वो, जनता को
चुनौती का अधिकार नहीं है
लगता है जनता जनार्दन को
संविधान से प्यार नहीं है
कोई बताये इन मतहतो को ,
के क्यों है सडको पे उबाल ,
क्यूं थाली पूछती है किसान से,
उसकी औकात पर सवाल,

काम आया जनता का गुस्सा,
आखिर झुके सरदार जी,
लोकपाल बना जनता का ,
हुआ है अब असरदार जी,
एक अकेले इन्सान ने ,
के दी हालत ख़राब,
बगलें झांके हॉवर्ड के मंत्री,
सरकार खोजे जवाब,
देख कर जनता की ताकत,
सरकार चली दरबे में,
सांसद और पार्टीगन हुए निराश
मैडम जो गयी गरबे में ,

देश का युवा, देश का सम्मान
पोछे जनता, भारत के जवान,
देश का युवा यहाँ है,
युवाओं का नेता कहा है???
तेवर देख लोगों के
हिल गयी सत्ता की चूलें ,
तब फरमाए सदीप,हो गयी,
जैसे सबसे होती हैं, छोटी मोटी भूलें,
फ़िलहाल कुछ सवाल हैं ,
जिन पर सब हैं मौन ,
काम से ज्यादा स्थगित रहती ,
ऐसी संसद चलाएगा कौन ,
देर सबेर लोकपाल तो बन ही जायेगा ,
देश से लेकिन, भ्रष्टाचार मिटाएगा कौन ....
देश से लेकिन, भ्रष्टाचार मिटाएगा कौन ..

कुछ टूटी फूटी नज्में ...(part 2)

१)लाख मिन्नतों के बाद भी रिसता जो आँखों से ,
वो अश्क नहीं बेवजूद पानी होता ,
गर नुमायाँ हो जाता दर्द यों ही,
तो हमारा मुस्कराना बेमानी होता .

२)हर हाल में अब मुस्कराना सीख लिया है,
हमने आँखों की कोरों में आंसू छिपाना सीख लिया है,
दुनिया कहती है जिन्हें घूम के आंसू ,
उनको हमने हंस कर ख़ुशी की बोंडे बताना सीख लिया है..

३)खुदा ने जब बख्शी थी नेमत-ए- ज़िन्दगी,
हम बेकदर बेपरवाह हो चले थे,
एहसास जब तक होता बन्दे को ,
खुदा खुद सामने खड़ा था ..

४) दर्द की क्या बिसात जो निकल जाये हसे आगे ,
और नासमझ हैं वो लोग जो कहता हैं ,
वक्त्गी के साथ पीछे छूट जायेगा दर्द.
कोई बताये उन बन्दों को,
हम तो वो लहू हैं जो दर्द की रगों में बहते हैं ,,

५)मुसीबतों ने आकर पूछा इक रोज़,
क्या औकात है तेरी ,
जो बार बार हमसे टकराता है,
हम क्या जवाब देते , बस इतना कह पाए,
मैं तो इक अदना सा इन्सान हूँ,
और हमारा तो सदियों पुराना  नाता है ,

कुछ टूटी फूटी नज्में ...(part 1)

कुछ टूटी फूटी नज्में ...(part 1)

by Nitish Mantri Singh on Friday, August 26, 2011 at 7:38pm
१) गवाह  है इतिहास लहू की बहती धारो का ,
धेहते महलों, मीनारों का ,छेखों का पुकारों का ,
गर इसने कुछ नहीं देखा तो वो है,
जूनून प्यार का , और जज़बा वफादारो का ..

२)नाकाम रही जंग जीतने की हर कोशिश
कमबख्त ज़िन्दगी ने हरा दिया ,
बस जीत के दर पे पहुंचे ही थे ,
के बेमुर्रव्वत ज़िन्दगी ही हार गयी ,,

३)अदालत -ए - दिल में सुनवाई की रवायत नहीं होती
सीधे फैसले होते हैं ,सुबूत जुटाने की कवायद नहीं होती ,
मुहब्बत को तो मानता है खुदा भी पाक,
वरना आशिकी में उस परवरदिगार की इनायत नहीं होती,

४) शिकायत नहीं तुझसे कोई , तेरी जुस्तजू भी नहीं ,
शिकवा तो जिंदगी से भी ना हुआ  कभी
जाने क्या वजह है जो मेरी ज़िन्दगी में तू नहीं ,
शौक कहो इसे या मेरा गुमान कहो ,
के तेरे बाद मेरी ज़िन्दगी में कोई आरजू नहीं