Friday 16 September 2011

होता ज़रूर है....

1)
तारीफ भरी नज़रों से,
देखा जो उन्होंने,
हमें बादलों पर बैठे हुए ,
जिगर को एक मुश्त सुकून मिला ,
वो बात दीगर थी ,
ना वो जान पाए ,
ना हमसे क़ुबूल किया गया ,
कटी पतंगे भी कुछ वक़्त ,
आसमान में रहती ज़रूर हैं ,,,,,

2)
वो हमें समझ बैठे
पहली मुलाकात में ,
कोमल , निर्मल , साफ़ ,
पानी का नदिया  ,
हमें भी अच्छा लगा ,
लेकिन शायद ना वो समझे,
ना हम समझा पाए ,
नदिया  चाहे जितना भी ठहरे ,
धीमे धीमे बहती ज़रूर है ,,,,,

3)
देख कर हमें ,
एक रोज़ कही अचानक ,
हया से मजबूर हो कर
जो पलकें झुका लें थीं उन्होंने ,
आज तक असर है उसका ,
बात ये और थी के
फिर ना कुछ कहा उन्होंने लबों से,
लेकिन झुकी ही हो फिर भी
एक नज़र कुछ कहती ज़रूर है ..,,,

4)
चाहे जितनी भी खुशियाँ
ला कर रख दो क़दमों में
चाहे जितने भी अरमान
पूरे कर दो इक पल में ,
चाहे जितना खुश हो जाये
वो इक जान उस पल में .
चाहे जितना भी कम कर दो
ग़म उस नादाँ सी जान का
वो औरत ही है जो हर पल ,
कुछ ना कुछ सहती ज़रूर है...

घर ,,, पुराना घर ..

पुराना घर जब आज फिर
नज़रों के सामने से गुज़रा
यकायक यकीन ना हुआ
कदम चल पड़े भीतर ,
अन्दर का नज़ारा बड़ा ग़मगीन था ,
जो था वो बिखरा हुआ
और बेहद संगीन था
वो दरवाज़े अब थोडा
बुज़ुर्ग हो चले थे ,
लेकिन आने वालो का एहतराम
और जाने वालो को
आवाज़ देना नहीं भूलते
वो खिड़कियाँ आज भी
हवा के इंतज़ार में
पत्ते की तरह हिलती रहती हैं
फड़फड़ाती  रहती हैं
और एक कोने में एक छोटा सा
स्टूल पड़ा था
जैसे घर का पुराना वफादार हो कोई
जब बुलाओ चला आता हो,
साथ ही एक बेहद पुरानी
दरख़्त के टुकडो से बनी
एक मेज़ रखी है बीचो बीच
जिनसे जुडी हैं अनगिनत यादें
टूटी हुयी सी उस मेज़ पर
आज बरसो बाद हाथ फेरा
तो लगा उसमे मुझसे
ज्यादा जान बाकी है,
ज्यादा सब्र है,
ग़म को छुपाये रखने का,
आज भी उस पर
पेंसिल से बनाये हुए कार्टून
साफ़ झलकते हैं ,
माँ के ऐनक की परछाईं
अब तक वैसी ही है
वो छुटकी का उसके
नीचे छुपना , मेरा ढूंढना
और माँ का एक चपत लगाना
बड़े दद्दू की नाश्ते की
प्लेट का अक्स वैसे ही सलामत है
जैसा उस रोज़ था ,
साथ में वो भी है
तीन टांगो वाली कुर्सी
एक पाया किचन के कोने
में पड़ा है सालों से,
और तो सब था
एक मैं ही नही था
उस मेज़ के पास
और आज भी
और तो सब है
बस एक मैं ही नहीं हूँ
उस मेज़ के पास

नदी और समंदर ...

इक दिन सागर बोला नदी से,
तू क्यों मुझमे आकर मिलती है,
आखिर मैं तनहा अकेला ,
नमक का ढेर ही तो हूँ मैं ,
खुद में सिर्फ चंद सीपियाँ ,
और मोती ही तो संभाले रखता हूँ
और तू ज़िन्दगी से भरी,
उछलती , मचलती,
मुडती, तेज़ चलती,
लोगो से मिलती, जीवन देती है ,
सबके हाथों को ,
मीठे पानी से भर देती है,
सदियों से सोच रहा हूँ अकेला,
फिर भी समझ नहीं आता है,
आखिर मैं किस काम का ,
और तुझे मुझने मिलना
दुनिया में कौन सिखाता है..
मुस्करायी नदी,
और हौले से बोली,
तुझ में मिलना , सुकून देता है मुझे,
तेरा आकार बढ़ाने का ख्याल ,
जूनून देता है मुझे ,
पर ना जाने क्यों तू
अपने आकार से घबराता है,
अरे ये सब तो,
विधि का विधान कहलाता है ,
मिलते हैं राह में हजारों,
कहते हुए की ,
तेरा मेरा सदियों पुराना नाता है,
जानती हूँ मैं बस इतना ,
ये रिश्ते ऊपर  वाला बनता है ,
मैं तो तुझमें तब तक गिरूंगी,
जब तक तू मुझ सा नहीं हो जाता है,
और याद रख ,
एक दूसरे में खुद को खोना ही
अमर प्रेम कहलाता है...

कीमत..

कैसा तेरा जहाँ, कैसे रवायत तेरी खुदाई में है ,
मिलने पर बगावत है, जशन तो जुदाई में है,
चाहा था नाप ले पल में सारा आकाश उड़कर,
पर कटा कर बैठे हैं, ख्वाबों की कीमत चुकाई यूं है,,,

बहार ठंडा पड़ा है सूरज,आगोश में है आज ज्वालामुखी,
चरागों की आंच भी सहन नहीं होती है अब जिगर में ,
वाह मेरे मौला ,क्या करम किये हैं तूने मुझ पर,
शोले थमा कर हाथों में , लौ ये तूने बुझाई यूं है ,..

हर पल देखता हूँ आखो के  सामने उस चेहरे को
हर पल सोचता हूँ उस चक चौबंद पहरे के बारे में
पहरा हटता हा भी नागवार लगता है दिल को ,
रिहाई तो तेरी कैद में बसी है, वरना कैद तो रिहाई में है ,

महफ़िल ऐसी के कोई आ नहीं सकता दर के इस पार ,
महफ़िल ऐसी के मैं जा नहीं सकता घर के उस पार,
जाना ही कैसा , गर तू नहीं हो वहा पर, कहते हैं लोग,
लगता नहीं सच ,दिल नासमझ हैं जो महफ़िल उसने सजाई यूं है

बूंदे, ....

बूंदे, ये बारिश की बूंदे ,
लगती हैं कुछ ऐसी गोया ,
हमने पा लिया वो टुकड़ा,
आसमां के दिल ना था जो खोया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
बताती हैं  हमको,
कितना बेचैन है ये शफक,
लगता है बरसों से
एक पल भी नहीं सोया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
कहतीं हैं हमसे ,
भटक रहा है एक आवारा,
कहते  हुए,कोई ऐसा ना रोया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
छप्प से गिरती,बताती हैं दुनिया को ,
दर्द के कतरे हैं हम,
मस्तमौला कौन हम सा होया ,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
सिखाती हैं पल पल ,
दर्द का बोझ बादलों ने ,
ख़ुशी ख़ुशी , घुमते फिरते हैं  ढोया,

बूँदें, ये बारिश की बूँदें ..
बोलती हैं दुनिया से ,
हम फल हैं उन बदल क पेड़ों के
जिन्हें धरा ने इक साथी की उम्मीद में था बोया ....

Wednesday 7 September 2011

एक पैगाम.. ऊपरवाले के नाम ....

आँखें रोती हैं बेबस, आंसूं नहीं निकलतें हैं,
दिल मासूम तड़पता है यारों के लिए,
वक़्त के ज़ालिम पत्थर, इक बूँद भी ना पिघलते हैं ,

वक्तगी ने पीछे छोड़ दिया है उन लम्हों को ,
कमबख्त दिल ही ना भुला पाया है ,
ज़हन समझाता है बार बार, फिर भी ,
नासमझ दल आज फिर उन यादों को बुला लाया ,

कैसे समझाउं उन्हें ,उनके बिना ये ज़िन्दगी,
बेवजह अधूरी तलाश सी है ,
जिंदा दिखता है ये जिस्म आँखों को,
रूह तो अब इक लाश सी है ,

हो जा थोडा तो मेहरबान ,
आज बस इक बार को ए वक़्त हम पर ,
फिर चाहे ताउम्र ज़लालतें- ज़िल्लतें देना ,
या कर लेना जी भर कर सितम हम पर,

वो यार थे ही ऐसे, जिस्म की जान के जैसे,
फ़कीर को मौला मिले यूं,
ज़मीर को ईमान मिले जैसे ,
पंडित को गीता और मुल्ला की कुरान के जैसे,

गर एक बार दोस्त मिल जायें ,
एक रोज़ को ही  सही, फिर से जी जाऊंगा ,
दो पल खुशियाँ बिखेर कर, अँधेरे की तरह,
सुबह उनके साथ जहाँ से रुखसत हो जाऊंगा .....

Tuesday 6 September 2011

khayalaat : zamane ki aad mein..

हर शहर का एक फ़साना होता है,
हर बाशिंदे का एक ठिकाना होता है,
बेहद ऊँची होती है यूं तो परवाज़ परिंदों की ,
लेकिन शाम ढले शजर पर वापस आना होता है,

एहतराम-ए-जहान किया हमने बहुत,
किसी को खता लगी, किसी को सबाब ,
ज़माने की रवायतें यूं तो हज़ार होती हैं,
लेकिन हर रवायत का एक ज़माना होता है,

एक एक जान के पास है तमाम ज़लालतों की मिल्कियत,
हर बशर को कदम दर कदम ठोकरें खाना होता है,
वजूद पर सवाल करती रहती है जिंदगानी भी,
बिसात क्या है उसकी उसे भी ये बताना होता है ,

अकीदतें अता की ज़माने को जेबें भर के हमने ,
पर खुलूस-ए-ज़िन्दगी मयस्सर ना हुआ ,
खतावार तो वक़्त के नश्तर भी नहीं थे ,
आबशार-ए- लहू में उम्मीदों को, उसे भी नहाना होता है ,

महरुफियत खूब तख्सीम की मालिक ने जहान में ,
मुख्तासिर सा पुलिंदा हमें भी दे दिया होता
पुर्सुपुर्दगी ही बख्श दी होती , मौजों में बहने की,
तस्सव्वुर तक ना करने दिया , क्या जशन दिल का लगाना होता है .