Sunday 24 March 2013

औरत

सर पर सिन्दूर ,
सिन्दूर को ढकता आँचल,
एक सुर्ख बिंदी,
रत्ती भर फीकी मुस्कान
तथाकथित विरासत में मिली,
हया की चादर,
और आँखों में हज़ारों जज़्बात,
मैं चेहरा हूँ एक औरत का,
और यही है मेरी औकात.

सकुचाए से कंधे ,
जैसे वक्षों को घेर कर,
एक आवरण देने की कोशिश में हों,
किसी बाहरी नज़र से,
पर मजबूरन इतना ही झुकते हैं सिर्फ,
कि पीठ ना उघड़ जाए,
ये पर्दा ही मेरा दिन और रात है,
क्या करूं, औरत हूँ मैं ..
और यही मेरी औकात है.

हाथ में पल्लू का कोना,
जैसे चाहता हो पूरे पेट को ढकना,
कोई देख ना ले वरना,
कोख परायी हो जायेगी,
और कमर कि तमाम उपमाएं,
अपनी गरिमा खो देंगी,
सब सुन्दर है, नज़रों कि करामत है,
और यही मेरी औकात है ..

कटी से अंगिया हटी,
आत्मा कटी, आबरू घटी,
सती भी मैं, रति भी मैं,
सीता-अहिल्या और मूढमति भी मैं,
ममता,वात्सल्य और प्रजनन में  ,
मेरी ताकत भी है और मेरी मात है,
और यही मेरी औकात है .

पैरों में संसार पड़ा है,
या मैं पैरों तले पड़ी हूँ .
मैं आज भी एक माँ, बहन,
बीवी, बेटी और सखी हूँ,
औरत तो मैं आज तक नहीं बन पायी,
लाख कोशिश कर ली पर,
जो पूरी ना हुयी वो यही एक बात है,
मैं औरत हूँ,
और यही है मेरी औकात..
और यही है मेरी औकात





Thursday 21 March 2013

मैं औरत हूँ

थोड़ा सा सुकून मिले तो सोच लूं,
मैं भी एक इन्सान हूँ,
नहीं हूँ मैं मुर्दा जिस्म,
मैं भी इक जान हूँ,

ये सुकून मिले ही तो कहाँ मिले?
अपनों में?
या सपनो में ?
क्यों की मैं औरत हूँ,
परायों में खोज जो सुकून पाया
उठ गयी आवाज़ मैं बेगैरत हूँ,
...क्यों की मैं एक औरत हूँ???

पूजते हैं बुत बना कर,
देखते हैं बुत बना कर,
न मैं मिट्टी हूँ,
न मैं पत्थर ,
फिर क्यों मैं इक मूरत हूँ,
... क्या सिर्फ इसलिए
की मैं एक औरत हूँ ??

मान सम्मान जो मुझसे जुड़ा है
सिर्फ तुम्हारी आँखों का नशा है,
जिस्म भेदते तुम हो मेरा,
और शील मेरा भंग हुआ करता है ?
मैं नहीं महज़ एक जिस्म,
नही महज़ मैं खूबसूरत हूँ,
मैं इस जहां की,
इस दुनिया के परिवार की,
इस संसार की ज़रुरत हूँ,
क्यों की मैं ...
औरत हूँ ..
क्योकि मैं औरत हूँ …

Wednesday 6 March 2013

आखों का कोरापन

लोग कहते हैं ..ये एहसास कातिल हो सकते हैं,  शायद सच है। लेकिन  सुना था सच तो कुछ भी नहीं होता , जो शायद मेरे लिए सच है, वो मेरे सबसे बड़े शत्रु के लिए भी हो सकता है , और मेरे सबसे करीबी के लिए झूठ। भावनाएं भी सापेक्षिक होती है ... समय के सापेक्ष , अवसर के अनुकूल ...सांसारिक मोह माया समझ नहीं आती सिवाय इसके की "तुम" झूठ थे .. कुछ भी सच नहीं होता।


अक्सर कहा करता था वो मुझसे ,
वो उससे मेरी वफ़ा,
और ज़माने से मेरी बेवफाई पर मरता है,
पर मेरी आँखें कहती थीं,
कोई उससे बेइन्तेहां मुहब्बत करता है,
पर ज़िक्र हमेशा रहता था,
उसकी बातों  में मेरी सच्चाई का,
कहता था , तुम अच्छे हो,
सारे जहां से अलग हो, के तुम सच्चे हो,
पर कैसे समझाऊँ उसको,
सच्चाई, वफ़ा, इमानदारी, सब कोरी बातें हैं,
सब कुछ सापेक्ष होता है,
क्या बताऊँ जिस सच्चाई के तुम कायल हो,
उसने मुझे कितनी बार ठगा,
जिस वफ़ा को तुम मेरी खूबी कहते हो,
उसने छोड़ा न किसी को सगा ,
सबको सच दिखाया, पर खुद से कहा झूठ,
कितनी ही बार ऐसा हुआ,
खुद से हुए हम खफा, खद से गए रूठ,
इसीलिए कहा करते हैं हम,
ईमान, धरम, सच, वफ़ा और करम,
सिर्फ है धोखा,आँखों का वहम,
और आखिरकार धीरे धीरे ओढ़ लिया हमने ,
आखों का वो कोरापन ...
अब न आँखें बोलती हैं ,
न तुम सुनने को मौजूद होते हो पास में ,
सिर्फ एक कोरापन है,
आँखों में, एहसास में ...