Monday 10 August 2015

सरकार और समानता : क्यों कि हम एक हैं

सात घोषणाएं जो एकता और एकरूपता बढ़ाने में मदद कर सकती हैं :

स्वतंत्रता दिवस आ रहा है, एक बार फिर, जैसे हमेशा आता रहा है 67 सालों से।  नया क्या होगा ? इस बार भी प्रधानमंत्री लाल क़िले की प्राचीर से डोरी खींचेंगे, इस बार भी प्रधानमंत्री देश को सम्बोधित करेंगे, एक आध या उससे अधिक वादे करेंगे और पूरा देश ड्राई डे और तिरंगे प्लास्टिक कूड़े की वजह से एक शक्ल में ढल जायेगा। टीवी और रेडियो गाने बजा बजा कर बताएंगे कि हम एक हैं ( और हमने आज तक एक के आगे गिनती ही नहीं सीखी; इसीलिए सारे टुकड़े खुद को एक ही गिनते हैं), समाचार चैनल और अख़बार वाले तमाम सामान्य  दिखने वाले लोगों द्वारा देश के नाम दिए गए बधाई सन्देश
दिखाएंगे जिसमें उन्होंने सवा अरब लोगों के ख़ास होने पर गर्व की अनुभूति होने की बात की होगी। हालांकि ये बात सच है की स्वतंत्रता दिवस को सिर्फ दो ही चीज़ें हमें पूरी तरह से एक करती हैं।  पहला, ड्राई डे और दूसरा हमारी नागरिकता। ड्राई डे तो सैलानियों को भी हम में मिला देता है।  वैसे अक्सर देखने में आया है कि इस दिन अपराध स्वतः कम हो जाते हैं।  होना भी चाहिए, सारे छुटभैये नेता अपने चेले-चपाटियों के साथ बड़े नेता जी के सामने हाजिरी बजाने जो जाते हैं।  मजदूरों और अमीरों का एक सा हाल रहता इ हैंस दिन।  घर और पेट सूखा रहता है।


क्योंकि हम आज़ाद हुए थे, इसलिए इस दिन जश्न ज़रूरी है।  विडम्बना ही है ये कि आज़ादी का जश्न मानना भी मजबूरी ही है। चाहे जितनी इच्छा हो, चाहे जितनी ज़रूरत हो , आप उस दिन काम नहीं कर सकते।  चूंकि हम आज़ाद हुए थे इसी रोज़, इसलिए हम पर आज़ादी का जश्न थोप दिया जाता है।  इसे मनाना भी मजबूरी है।  वैसे भी हमारे देश में आज़ादी मजबूरी से अधिक कुछ नहीं।
 खैर, इस स्वतंत्रता दिवस पर भी प्रधानमंत्री जी पिछले 67 सालों की तरह से हमें भरोसा दिलाने की कोशिश करेंगे कि हम एक हैं, हमने तरक्की की है. हमें एक बेहतर देश बनना होगा , हमें पहले की तरफ ही एक हो कर रहना होगा, वगैरह वगैरह।  लेकिन इस बार अगर प्रधानमंत्री जी इस तरफ भी ध्यान दें कि बाकि विषमताओं को किस प्रकार दूर किया जा सकता और इस बाबत कुछ अपील करें तो कितना अच्छा हो ? भारत का हर राज्य, हर शहर, हर घर और हर घर के अंदर बना हर कमरा अलग है।  अपने आप में कोई दो चीज़ें एक सी नहीं हो सकती।  इसलिए हम विषमताओं को सँभालने वाले देश हैं।  इतनी विषमताएं कहीं नहीं मिलती ( या शायद कोई इसका गाना नहीं गाता), वो बात अलग है कि बाकि देशों में भी ऐसे हालात हैं।  वहाँ भी विषमताओं के बाद एकता है।  उनके यहां भी अलग अलग भाषा-बोलियों के बाद भी देश एक है।  उनके यहां भी अपराध और अपराधियों की अलग अलग किस्मों के बावजूद तंत्र उदासीन है।  उनके यहां भी बेरोजगारी से ले कर अति कर्मठता की रेंज है लेकिन देश एक है।  हाँ, हमारे बीच अंतर हैं।  हमारे प्रधानमंत्री अलग अलग हैं।  हमारे राष्ट्रपति अलग अलग हैं।  हमारे संविधान अलग हैं। दीगर है कि इनके प्रति सम्मान और क्रियान्वयन की भावना एक ही है - मानव स्वाभाव की दिशा में।

 एकता जब तक पूरी तरह से हावी न हो तब तक एकता का कोई फायदा नहीं। इसलिये शीर्ष स्तर से शुरुआत होनी चाहिए। भारत का संघीय ढांचा भारत के अलग अलग राज्यों को एक साथ रखने में मदद करता है, भले ही सबसे अलग अलग व्यव्हार किया जा रहा हो।  थोड़ा भेदभाव , थोड़ा प्यार।  जैसे माँ बाप ढेर सारे बच्चे
पालते हों, ठीक वैसे।  इम्तेहान के वक़्त प्यार और बाकी वक़्त सबमें बराबर बाँट दो। खैर , हम बात कर रहे थे कि वो  घोषणाएं और अपील हो सकतीं हैं जो प्रधानमंत्री जी द्वारा की जा सकती हैं एकरूपता और एकता को थोपने के लिए, मेरा मतलब प्रोत्साहन देने के लिए।

1. किसानों के लिए एक समान उपेक्षा पालिसी :  देश में यूं तो कहीं भी किसानों के हालात अच्छे नहीं हैं।  चाहे वो पंजाब हो या बंगाल हो या आंध्र, किसान हर जगह उपेक्षित हैं।  चाहें वो कुछ करें या न करें , चाहें वो
रोबर्ट वाड्रा हो या गँजेद्र सिंह। किसान तंत्र, तांत्रिकों और तंत्रहीनों की तरफ से सर्वथा उपेक्षा का शिकार रहे हैं।  हालाँकि विदर्भ के किसानों ने उपेक्षा से बचने का मार्ग खोज निकाला और तड़ातड़ आत्महत्या कर के सुर्खियां बटोर ली। किसान हर जगह तवज्जो पाने लगे।  मीडिया, सोशल मीडिया, फिल्म आदि। इससे किसानों की एकरूपता में खलल पड़ा और सरकार ने पंजाब में राहत पैकेज दे कर और कुछ जगहों पर दो दो रूपए के  चेक बाँट कर समानता लागू करने की नाकाफी कोशिश की।  लेकिन अभी भी किसानों का एक बड़ा तबका उपेक्षित हैं और इसलिए प्रधानमंत्री जी अपील कर  सकते हैं कि देश में बहुमत प्रणाली का सम्मान करते हुए अन्य किसानों से तवज्जो पाने का अधिकार छीनते हुए किसानों के बीच एकता का सन्देश दिया जाये।

2 . अफस्पा को पूरे देश में लागू करने की अपील : एक आश्चर्यजनक आंकड़े के अनुसार जिन राज्यों में अफस्पा लगा है वहाँ किसी भी तरह की अपराधिक गतिविधियाँ बाकि राज्यों की तुलना में नगण्य हैं। अफस्पा शासित राज्य, माफ़ कीजियेगा , अफस्पा लागू करने वाले राज्य अधिक शांतिपूर्ण और अनुशसित जीवन बिता रहे हैं। चाहे कोई भी राज्य हो पूर्वोत्तर का, अपराध दर सामान्य से कम ही है।
 इन राज्यों में बलात्कार और हत्या, राहजनी की, लूट पाट की कितनी घटनाएं सुनी हैं आपने।  जबकि वो सभी राज्य जहां अफस्पा लागू नहीं है, वहाँ आये दिन, दंगे, लूट पाट , हत्या- बलात्कार की सूचना मिलती रहती हैं।  आये दिन विरोध प्रदर्शन होता  लोग सड़कों पर उतर आते हैं।  आये दिन लाठी चार्ज और  वाटर केनन के इस्तेमाल की खबर मिलती  रहती है।  क्यों न पूरे देश में अफस्पा लागू कर दिया जाये और नागरिक अपराधों को काम की बजाय न्यूनतम तक सीमित करने की कोशिश की जाये।  वैसे भी देश में अफस्पा के समर्थक बहुत बड़ी संख्या में हैं।  इसका एक अतिरिक्त फायदा ये होगा कि सेना की पहले से मौजूदगी से प्राकृतिक आपदाओं के वक़्त जानमाल का नुकसान कम होगा।

3 . चुनाव का आधार मतदान की जगह पार्टी सदस्यों की संख्या को बनाया जाये : देश की निर्वाचन प्रक्रिया काफी समय से विवादों में है।  कहते हैं कभी 23 % पाने वाला नेता बन जाता है तो कभी 33% पाने वाला।  ऐसे में भरी विरोधाभास तब उत्पन्न हो जाता है जब चुनना तो एक प्रधानमंत्री को होता है, लेकिन वोट अजीब से दिखने वाले लोगों को देना पड़ता है।
 क्यों न यूं किया जाये कि जनगणना के वक़्त राजनीतिक रुझान पूछ लिया जाये और उसके बाद पूरे देश में सबसे अधिक सदस्य संख्या रखने वाली पार्टी को सरकार बनाने का अधिकार दे दिया जाये।  अरबों रूपए की  निर्वाचन प्रक्रिया को कुछ करोड़ के शपथ ग्रहण तक में सीमित किया जा सकता है। राज्य स्तर पर भी यही प्रक्रिया अपनायी जा सकती हैं। इस तरह देश में व्याप्त एकता विरोधी दुविधाजनक प्रश्न का बहुउद्देशीय हल निकला जा  सकता है।  जनता के बीच वैसे भी वोट देने को उत्साह कम ही रहता है।  अतः उनके मनोभावों को समझ कर पूरे देश में वोट ने देना कर्त्तव्य बना दिया जाये।  जनतांत्रिक सरकार का ये स्वरुप विश्व में पहला होगा और हम  एक परिपाटी शुरू करने वाले बन जायेंगे।

4 . प्राइवेट कर्मचारियों के लिए रिश्वत की अनिवार्यता लागू की जाये : देश में तीन तरह के लोग हैं रोज़गार के मामले में।  आश्वस्त रोज़गार, शाश्वत रोज़गार और ब्रह्म रोज़गार।  आश्वस्त रोज़गार वाले वो हैं जिन्हें रोज़गार का  आश्वासन तो मिला है लेकिन रोज़गार के लिए रेज़गारी पर निर्भर हैं।  ये लोग भीख मांगना, मजदूरी करना या दलाली करने का काम  करते हैं।  इसलिए इनकी आमदनी को मोटे तौर पर रिश्वत की केटेगरी में रखा जा सकता है।
 सरकारी कर्मचारी ब्रह्म रोज़गार की श्रेणी में आते हैं जहां इनके पास सबसे अधिक अधिकार और सुविधाएं होती हैं इसलिए इनके बारे में कुछ नहीं बोलूंगा।  अकेलापन असल में शाश्वत रोज़गारियों को महसूस होता है जिनकी किस्मत में सिर्फ काम लिखा है।  बेचारों के पास तो अपना कमाया पैसा खर्च करने का भी वक़्त नहीं है।  दूसरी तरफ बाकियों  इतना वक़्त होता है कि अपना कमाया मूल धन खर्च कर लें और साथ  साथ ऊपर की आमदनी भी कर लें।  इसलिए कर्मचारियों में व्याप्त इस भारी विषमता को ध्यान में रख कर प्राइवेट कर्मचारियों को ऊपर की आमदनी से महरूम रखने की मुख़ालफ़त करते हुए रिश्वत को अनिवार्य बनाया जाये।

5.  भारत को धार्मिक देश और नास्तिकता को अपराध घोषित करना :  प्राचीन काल से आज तक हमें एक सूत्र में पिरोने का काम सिर्फ धार्मिकता ने किया है।  चाहे वो सनातन धर्म हो या इस्लाम या फिर बौद्ध धर्म , सबने भारत के धार्मिक ढांचे में भरपूर योगदान दिया है और भारत को धर्मप्रधान देश बनाये रखा।  ये कवायद यहां तक सफल हुयी कि जब भारत ने अपना पहला टुकड़ा खोया तो वो धार्मिक देश के रूप में था।  संविधान हालाँकि जो बात कहता है वो मेरी
समझ से ये है कि भारत सभी धर्मों का समान रूप से आदर करेगा और जगह देगा।  अगर सच में ऐसा है तो भारत स्पष्ट तौर पर एक धार्मिक देश है  जो असल में बहुधर्मीय है।  इसलिए नास्तिकता इस देश की संस्कृति और धरोहर से खिलवाड़ है।  ये देखते हुए नास्तिकता को अपराध और भारत को स्पष्ट तौर पर धार्मिक देश घोषित करना चाहिए। ( पहले धार्मिक तो बनाइये, सनातनी बाद में बना लेंगे।  समझ रहे हैं न बात को )

6. हिंसा-आतंकवाद को राष्ट्रीय स्वरुप प्रदान 
करना : मुझे आशा है प्रधानमंत्री जी उन राज्यों को  आतंकवाद और दंगों का सुख भोगने के लिए प्रोत्साहित करेंगे जिनमें हिंसा अब तक सिर्फ छोटे मोटे अपराधों और धार्मिक-सांप्रदायिक स्वरुप में फैली है। आतंकवाद जैसे प्रत्यक्ष सुनियोजित स्वरुप को व्यापक बना कर लोगों को समझाने में सफल होंगे कि सेनाएं हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं।  गोवा और मध्यप्रदेश जैसे इलाकों में भी  रक्षा बजट का हिस्सा बनता है।  इसलिए प्रधानमंत्री जी से अपील उम्मीद है जिससे राष्ट्रीय एकरूपता को बढ़ावा मिले।

7. हर राज्य में घोटालेबाजों का सामान्य वितरण :  पिछले कुछ समय में देखने में आया है कि घोटालों का स्तर हर तरह से बढ़ा है। मुद्रा स्तर पर भी और क्षेत्रीय विस्तार के सन्दर्भ में भी।  लेकिन अजीब बात ये है कि घोटालेबाजों का कुछ चुनिंदा प्रदेशों और पार्टियों तक ही सीमित रहना।  एकरूपता के लिए ज़रूरी है कि सभी राज्यों में घोटालों और घोटालेबाजों का समान रूप से वितरण हो। असमान्य वितरण एकरूपता-एकता अभियान के विरुद्ध है।
पूर्वोत्तर और कश्मीर, केरल और गुजरात जैसे राज्य घोटालों के लिए पालक पांवड़े बिछाये इंतज़ार कर रहे हैं।

इसकेअतिरिक्त कई अन्य उपाय और घोषणाएं हैं जो भारत को एकता के आवरण में ढक सकती हैं , लेकिन, पिक्चर अभी बाकी है दोस्त!! अगले 25 साल हैं अभी तो सरकार के पास।  इस साल के लिए इतना ही काफी होगा।

(फोटो स्रोत : गूगल)