Saturday 30 July 2016

मेरी बेटी और उसके निप्पल




ये मेरी बेटी की तस्वीर है , और वो उसके निप्पल हैं।  
न्यायोचित व्यव्हार करते हुए मैं तुमको तैयार होने के लिए कुछ मिनट देती हूँ।  

हाँ, मेरी बेटी !!
हाँ, उसके निप्पल !! 

मैं यहाँ तब तक ज़रा इंतज़ार कर लूँ, जितनी देर में तुम मेरे बारे धारणा बना कर बड़बड़ाओगे, लार टपकाओगे, चिल्लाओगे या कोई भी उचित/अनुचित प्रतिक्रिया दोगे  

अब तक इंतज़ार कर रही हूँ।  

चलिये समय ख़त्म हुआ, थोड़ा वास्तविक हो जाते हैं।  

सबसे पहली बात, तुमको निप्पल पसंद हैं। इन्हें  बचपन  में स्तनपान के दौरान तुमने चूसा होगा, पोर्न फिल्मों में देखा होगा या फिर खुले में स्तनपान करवाती किसी बहादुर औरत की कृपा से तुमको दिख गए होंगे।  शायद तुम स्ट्रिप क्लब भी गए हों। मैंने तो तुमको मेरे स्तनों को घूरते हुए भी देखा है।  
और हाँ, मेरे वाले भी बुरे नहीं हैं।  

पुरुषों के निप्पल हर जगह दिखते हैं।  बीच पर टहलते हुए, समर कार्निवाल में घूमते हुए।  ऐबेरकॉम्बी ऐड में।  बिलबोर्ड्स पर।  मेन रोड में  जॉन डेरे पर बैठे हुए मिडिल एज्ड तोंद के ऊपर कायदे से टिके पुरुष के निप्पल।  हाँ, वही.....  काम करते हुए पुरुष के।  

 सिर्फ महिलाओं के निप्पल होते हैं जिनसे हमें शर्मिंदगी होती है, हम झेंपते हैं। ज़्यादा लैंगिक असमानता, औरतों को आवरणयुक्त, खामोश, कमतर बनाये रखने के लिए।  इक्कीसवीं सदी में बुर्क़ा भी यही करता है। स्तन के मामले में कपड़े छोटे हैं, सोच वही है।  छोटी।  

खैर, मैं मुद्दे से भटक रही थी।  इस तस्वीर का इन बातों से कोई ख़ास लेना देना नहीं है।  

मेरी बेटी तो कहती है, FUCK THAT!! (लानत है)! और हाँ, वो लानत है !! तुम्हारे लिए नहीं कहती। बल्कि उसे तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि  तुम उसके स्तनों और निप्पल के बारे में क्या और किस तरह सोचते हैं।



मेरी बेटी की ये तस्वीर कोई पोलिटिकल स्टेटमेंट नहीं है, ही कोई सेक्सुअल स्टेटमेंट।   ही ये तुम्हारे बारे में है और   ही तुमसे किसी तरह जुडी हुयी है.... आत्ममुग्धता और दम्भ की सनक पालने वाले बेवकूफों। 

उसके बॉयफ्रेंड (फ़ोटोग्राफ़र  ग्राफ़िक डिज़ाइनर मैट लिविंगस्टन) ने कुछ कहने-समझाने के लिए तस्वीर नहीं खींची थी, न ही किसी सस्ती से चीज़ की तरह दिखावे के लिए, न तुम्हें सीख देने के लिए और न ही तुम्हारे ऊपर लानत भेजने के लिए।  उसने ये तस्वीर इसलिए ली क्योंकि वो उस जगह की हक़दार है, स्वामिनी है जिसे वो भरती है।  भले ही वो छोटी सी जगह ही क्यों न हो जिसमें उसके निप्पल उसके मज़बूत बाज़ुओं, गठे शरीर, तनी ठोड़ी, बेधती नीली आखों  और गुलाबी बालों के साथ रहते हैं।  

मैट ने ठीक उसी लम्हें में उसे पूरा का पूरा कैद कर लिया तस्वीर में, जब वो सब एक साथ थे। दम भरने वाला लम्हा था।  

और मैं एक बार फिर से दोहराऊंगी, क्योंकि ये दोहराये जाने की ज़रूरत है। बार-बार।  
ये तुम्हारे बारे में नहीं है, किसी भी तरह से नहीं।  

आत्ममुग्धता-और-दम्भ-की-सनक-पालने-वाले-बेवकूफों!!

जब मैं इस तस्वीर को देखती हूँ, मुझे एक नवयुवती नज़र आती है, अपने शरीर की तमाम असरलताओं को, मेरी और तुम्हारी सराहनाओं से कहीं ज़्यादा, सराहती हुयी। बाए हिस्से पर एक स्ट्रोक के बाद उसने अपनी इच्छानुसार भाषाई नियंत्रण और गतिविधि की सरलता खो दी थी।  उसने घंटों की कड़ी मेहनत और पेशेवर थेरेपी के बाद इसे फिर से हासिल किया है। स्वस्थ होने के लिए उसने जिन सर्जरियों और पद्धतियों को अपनाया उन्हें शब्दों में बयान कर पाना मेरे लिए नामुमकिन है। उसने बहुत मेहनत से ये शरीर प्राप्त किया है। वो सराहती है इस शरीर को।  वो अपनी बुद्धि और बल पर इस शरीर की ज़रूरत है।  

जब मैं ये तस्वीर देखती हूँ तो मुझे एक युवती नज़र आती है जो एक स्वार्थी दरिंदे के जिस्मानी आघात से बच के आयी है , जो ये कहती है "नहीं, अब और नहीं", जो ये कहती है "मुझे डर नहीं लगता".

जब मैं ये तस्वीर देखती हूँ तो मुझे एक युवती नज़र आती है जिसने खानेपीने के विकार को पीछे छोड़ा जिसके कारण दिन-ब-दिन मुरझाती हुयी एक दिन वो हमेशा के लिए ग़ायब हो जाती। एक और मुश्किल जीत। वो मज़बूत है। स्वस्थ है। और उतनी बेहतर है जितनी वो हो सकती है।  और सबसे ऊपर, अपने शरीर के साथ फिर से दोस्त बन चुकी है। 

जब मैं ये तस्वीर देखती हूँ तो मुझे एक युवती नज़र आती है जो पशिचमी तट पर रहती है, जहां अंतर्वस्त्र न पहनना एक  तरह से नियम है, बजाय विकल्प के।  जहां स्तनों का संकुचन यानी छोटे स्तन स्वस्थ स्तनों की श्रेणी में आते हैं।  एक ऐसी लड़की जो अपने शरीर के बारे में सोच समझ कर और जानकारी वाले निर्णय ले रही है।  


जब मैं ये तस्वीर देखती हूँ तो मुझे एक युवती नज़र आती है जो उन सबको नकारने की कोशिश में जुटी है जिन्होंने उसे नीचा दिखाने की कोशिश की, जो अपनी जीत को एक लम्हा और जीना चाहती है। 

और जब तुम सी तस्वीर को देखते हो, तुम देखते हो, सिर्फ निप्पल। 
मेरी स्पष्टवादिता के लिए मुझे माफ़ करना , लेकिन तुम्हारे साथ कुछ दिक्कत है।  
या फिर, हो सकता है, शायद हो सकता है, तुम्हें उसकी प्रचंडता दिखाई देती है जो तुम्हे डराती है।  

बदलाव की बयार सुई को उल्टा घुमा रही हैं।  क्षतिपूर्ति करती हुयी।  असमानता ख़त्म करते हुए। असंतुलन मिटाते हुए। मर्दानगी का गढ़ ख़त्म करते हुए। 

सीधे शब्दों में कहूँ तो इस तूफ़ान का नाम मैक है।  और वो इतनी मज़बूत है कि वो निप्पल्स और ऐसी तमाम बकवासों के बीच अपनी राह बनाते हुए आसानी से चहलकदमी करती हुयी चली जायेगी, इसलिए उसके रास्ते में न आना।  

{ये पोस्ट हॉलीवुड की हस्ती क्रिस्टीन लाशेर की ब्लॉग पोस्ट MY DAUGHTER AND HER NIPPLES(HTTP://FINALLYQUIET.COM/MY-DAUGHTER-AND-HER-NIPPLES) का साधारण  हिंदी अनुवाद है।}

Saturday 13 February 2016

रंडी और उसका रंडीपन : सबसे लोकप्रिय चारित्रिक विशेषण


-अरे उसको देखो कैसे चिपक के बात कर रही है, रंडी साली..
-अरे देखती हो, लेडीज के लिए सीट खाली है लेकिन बैठी है जेंट्स वाली सीट पर, रांड कहीं की...
-पति के पीछे घर आए सेल्समेन से कैसे हँस-हँस के बात करती है, रंडीपन छिपता थोड़े न है....
-मैंने कहा मुझसे शादी कर लो तो बोली किसी और को पसंद करती है, रांड साली, आवारा..
-अरी कहाँ रह गयी थी? बाज़ार में इतनी देर लगती है भला? तेरे ससुर जी सही कहते थे.. मैं ही नहीं मानती थी.. तू तो है ही आवारा, रंडी की औलाद..

ये सारे जुमले, ये बातें कहीं न कहीं सुने ही होंगे.. बहुत कॉमन भाषा है.. हर जगह.. चाहे बड़े शहर हों या छोटे शहर, गाँव हो या क़स्बा, पढ़ा लिखा समाज हो या तथाकथित गंवारों का टोला. ये भाषा हर जगह समान अधिकार के साथ बोली जाती है. कोई भी पुरुष हो या पुरुष के “गुण” वाली स्त्री, सभी इसका प्रयोग समान अधिकार से करते हैं. निशाना कभी सामने वाली स्त्री के चरित्र पर ऊँगली उठाना होता है, तो कभी खुद को सामने वाली स्त्री के मुकाबले अधिक चरित्रवान साबित करना. कुल मिला कर मामला चरित्र पर ही टिकता है. हो भी क्यों न, रंडी एक पेशेगत विशेषण से बदल कर चारित्रिक विशेषण जो बन चुका है. मज़ेदार बात ये है कि किसी को रंडी कह कर संबोधित कहने वाले ज़्यादातर लोगों ने रंडी देखी भी नहीं होती है, जानने की बात तो दूर है. हालाँकि इसके लिए इस शब्द ने हजारों-लाखों ज़ुबानों से ले कर कई सदियों का सफ़र तय किया है.. कई अन्य शब्द भी लगभग इसके साथ चले थे, इसके जैसे मायने वाले ... छिनाल, फ़ाहिशा, वेश्या वगैरह, लेकिन ये शब्द समय के साथ सबको पीछे छोड़ता गया.

सबसे पहले इस शब्द के मायने क्या हैं.. रंडी शब्द का अर्थ है एक से अधिक पुरुषों से “सम्बन्ध” रखने वाली स्त्री. शुरुआती दौर में सम्बन्ध से तात्पर्य शारीरिक सम्बन्ध था जो कि कालांतर में “अपने” पुरुष की इच्छा के बिना बातचीत और किसी भी तरह का संपर्क रखने तक में बदल गया. भारतीय समाज में स्त्री के ऊपर किसी न किसी पुरुष का एकाधिकार रहता ही है. कभी पिता के रूप में, कभी पति के रूप में, कभी पुत्र के रूप में और कही उसके दलाल के रूप में. उसकी अपनी इज्ज़त नहीं होती है. उसकी इज्ज़त प्रत्यक्ष तौर पर उसके ऊपर “मालिकाना” हक रखने वाले पुरुष की इज्ज़त के समानुपाती होती है. यानी स्त्री अपने ऊपर अधिकार रखने वाले पुरुष के अतिरिक्त किसी और से बात व्यव्हार रखे तो लोग उसे “रंडी” बोलने में कोताही नहीं करते.. खुले दिल से उसका चरित्र संवारते हैं. रंडी शब्द शायद सबसे पहले देह व्यापार करने वाली महिलाओं के लिए इस्तेमाल किया गया होगा, जो कि मोटे तौर पर रंडुआ शब्द का स्त्रीलिंग है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है बिना स्त्री का पुरुष. इस तरह रंडी का शाब्दिक अर्थ हुआ बिना पुरुष की स्त्री, बिना “लगाम” की स्त्री.. नियंत्रणहीन स्त्री. देह व्यापार करने वाली स्त्रियाँ समाज में हमेशा में पुरुष के नियंत्रण से मुक्त रही हैं. ये बात अपने आप में अजीब लगती है कि आज़ाद और बिना पुरुष के नियंत्रण वाली स्त्री घटिया और दोयम दर्जे के व्यव्हार के अनुकूल मानी जाती रही है.

इसे बतौर वाक् अस्त्र यानी अपशब्द प्रयोग करने कि वजह शायद यही रही होगी कि पुरुष को “ऐसी” स्त्री के समक्ष झुकना पड़ता है और उसके सामने उसकी पितृसत्ता, साधारण समाज के विपरीत, घुटने टेक कर एक याचक के रूप में खड़ी नज़र आती है. पितृसत्ता वाले समाज में किसी पुरुष के लिए स्त्री के समक्ष प्रत्यक्ष याचना करना या अपने बराबर के दर्जे में खड़ा कर के लेन देन के लिए व्यव्हार करना किसी “गुनाह” से कम नहीं है, एक प्रकार से उसकी सत्ता की हार है, एकाधिकार की हार है जिसे वो आसानी से स्वीकार नहीं कर सकता, न कर पाता है. इसलिए खुद को चुनौती देने वाले हर अस्तित्व को उसने गाली का रूप दे दिया है. ऐसा भारतीय समाज में ही नहीं, वरन हर समाज में है, हर सभ्यता में है. कहते हैं न तलवार से तेज़ धार जुबान की होती है और उसका असर सीधा ज़हन पर होता है, शायद इसीलिए जहां हथियारों का प्रयोग नहीं किया जा सकता था वहाँ अपशब्द प्रयोग किये जाने लगे और चुनौती देने वाली  हर चीज़ को अपशब्द के साथ संबोधित किया जाने लगा. इसी कड़ी में रंडी शब्द ने जन्म लिया और आज जाने-अनजाने हर शख्स के लिए समान रूप से प्रयोग की जाता है.

वैसे तो रंडी शब्द मूल रूप से वेश्या या देह व्यापार में लिप्त स्त्रियों के लिए इस्तेमाल किया गया है, लेकिन इसमें भी एक पेंच है. रंडियों यानी वेश्याओं को ग़लत इसलिए माना गया है कि वो अपने देह का सौदा करती हैं. (वो बात अलग है कि खरीददार हमेशा पुरुष ही होता है और बाज़ार का सिद्धांत कहता है कि मांग ख़त्म कर दो, आपूर्ति स्वतः ख़त्म हो जाएगी), लेकिन स्त्री पर एक पुरुष का अधिकार हो ये नियम भी किसी स्त्री ने नहीं बल्कि पुरुषों ने बनाया था. स्त्री देह को शुचिता के दायरे में रखने की कल्पना पुरुष की ही थी, न कि स्त्री की. असल में स्त्री देह सबसे आसानी से उपलब्ध संपत्ति थी जिस पर अधिकार जताने के लिए किसी भी पुरुष को युद्ध नहीं करना पड़ता था. शेष अन्य संपत्तियों जैसे ज़मीन, शक्ति, सत्ता और धन के लिए अधिकार जताना आसान नहीं था. इसके अतिरिक्त अन्य संपत्तियों की अपेक्षा स्त्री देह बहुतायत में उपलब्ध था. इसलिए समय के साथ स्त्री देह ऐसी संपत्ति बनता गया जिस पर पुरुष आसानी से अधिकार जता सकता था और जिस स्त्री पर किसी का अधिकार नहीं होता था वो समाज का हिस्सा (प्रत्यक्ष रूप में) नहीं मानी जाती थी. आज भी कमोबेश यही हालात हैं. शायद इसीलिए इन्द्राणी मुखर्जी को हत्या के लिए आरोपी या दोषी बाद में माना गया, पहले चार शादियाँ करने के लिए उसे तमाम साहित्यिक विशेषणों से नवाज़ दिया गया. हर साहित्य, हर शास्त्र, हर अभिलेख ने इन्हें एक परित्यक्त कुनबे के रूप में स्थापित किया. लेकिन कभी क्या ये सोचा गया कि इनके अन्दर भी स्त्रियों वाले स्वाभाविक गुण होते हैं? क्या कभी इनके गुणों के बारे में भी बताने कि कोशिश की गयी? एक अपवाद रूप में रोमन साम्राज्य में वेश्याओं को समाज में अपेक्षाकृत सम्मानजनक स्थान प्राप्त था जहां वेश्यालय शहर के अन्दर हुआ करते थे. वेश्याओं की माहवारी का खून पवित्र माना जाता था जिससे ज़मीन की उर्वरता बढ़ने की मान्यता थी और इस खून के लिए उन्हें किसान मुंहमांगी रक़म देते थे. लेकिन भावनात्मक रूप से किसी भी समज ने उन्हें वो स्थान नहीं दिया जो कि बतौर इन्सान उन्हें मिलना चाहिए था. हाँ, वेश्यावृति के लिए नित नए तरीके खोजे जाते रहे, जैसे कुलीन वर्गों के लिए तवायफ़ें, धार्मिक रसूख़दारों के लिए देवदासियां, धनाढ्यों के लिए सेविकाएँ और ग़ुलाम वगैरह.

लेकिन मेरी नज़र में एक रंडी या वेश्या एक माँ के बाद दूसरी सबसे अधिक निश्छल प्यार बांटने वाली महिला है. शायद आपकी नज़र में न हो, लेकिन क्या कभी सोचा है आपने, स्त्री को इंसानों में सबसे अधिक भावनात्मक माना गया है और वो साधारणतया धन-दौलत जैसी चीज़ों से प्रभावित नहीं होती है, लेकिन “इमोशनल” तौर पर वो कुछ भी कर सकती है. धन दौलत एक स्त्री के लिए सबसे गौण या दोयम दर्जे की चीज़ होती है. इस बात कि पुष्टि अपने आस पास की स्त्रियों से कर सकते हैं. कभी अपने इर्द गिर्द औरतों को धन से खुश करने कि कोशिश कीजियेगा, बेहद मुश्किल काम है, ये समझ आ जायेगा. उन्हें आपके द्वारा खर्च किये गए पैसे से अधिक आपकी मंशा से ख़ुशी मिलेगी. उनका शरीर उनकी सर्वोच्च संपत्ति होता है, जिसे वो किसी भी कीमत पर नहीं सौंपती. शायद यही वो वजह है जो एक रंडी को मेरी नज़रों में ख़ास बना देती है. जो स्त्री बिना भवनात्मक आदान प्रदान के भी अपने लिए सबसे तुच्छ चीज़ के बदले  आपको आपके मन मुताबिक ख़ुशी और सुकून देती है, वो कोई और कर सकता है क्या? आपकी पत्नी तक बिना उसके मन के आपकी इच्छा को सिर्फ खानापूर्ति में बदल कर रख देती है. लेकिन एक वेश्या आपकी इच्छा को चन्द रुपयों के बदले बखूबी पूरा करती है. एक वेश्या पैसों के बदले प्रेम बांटती है, सिर्फ प्रेम .. कोई और स्त्री कर सकती हो या करती हो, ऐसा संभव नहीं दिखता. एक पुरुष जब वेश्या के पास से लौटता है तो अपने मन के द्वेष-विकार कि जगह संतुष्टि ले कर लौटता है. शायद, ये वेश्याएं न होतीं तो बलात्कारों का आंकड़ा आसमान छू रहा होता, मन की भड़ास को सहज रूप से निकलने का और कोई रास्ता नहीं होता, बीवियां आए दिन और अधिक पिटतीं और अपराधों का स्तर कहीं ऊपर होता. आपकी इच्छा को तवज्जो देने के मामले में एक वेश्या से अधिक निस्वार्थ और “सेल्फ्लेस” एक माँ ही दिखती है. वेश्या को सिर्फ अपने ग्राहक की संतुष्टि से मतलब होता है और माँ को सिर्फ अपने बच्चे की ख़ुशी और संतुष्टि से मतलब होता है, ये बात बदनाम गलियों और बदनाम गालियों में रहने वाली इन औरतों को ख़ास बना देती है. बेहद ख़ास .

आपको शायद ये आपत्तिजनक लगे कि मैं एक वेश्या की तुलना एक माँ से कर रहा हूँ, लेकिन ये सच नहीं है. मैं एक स्त्री की तुलना दूसरी स्त्री से कर रहा हूँ. उस स्त्री से जिसका वजूद तो है, लेकिन कोई सापेक्षिक और सामाजिक रिश्ता नहीं है. वो माँ बनती है, लेकिन सिर्फ अपने बच्चे की, किसी पुरुष के बच्चे की नहीं. वो बहन बनती है लेकिन अपने जैसी किसी और औरत की, किसी पुरुष की नहीं. वो बेटी होती है, लेकिन अपने जैसी किसी वेश्या की बेटी, किसी पुरुष की नहीं. वो भाभी, पत्नी, बुआ, चाची तो कभी नहीं बन पाती. मैंने तुलना की है समाज के दो ध्रुवों की जहां एक स्त्री को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त है और दूसरी को सबसे निचली. अगर ये तुलना ग़लत लगे या आपत्तिजनक लगे तो बस इतना समझ जाइयेगा कि आपने एक पुरुष की नज़र से इस पूरे कथन को पढ़ा है, न कि एक इन्सान की नज़र से.. क्योंकि माँ, बेटी, वधू, पत्नी आदि रिश्ते पुरुषों के सापेक्ष हैं, न कि किसी स्त्री के अस्तित्व की पहचान हैं... इसलिए कोशिश करियेगा जब किसी “रंडी” से मिले तो उसे हिक़ारत और उपेक्षा की नज़रों से ना देखें. वो वहाँ “बाई चॉइस” नहीं हैं, वो वहाँ खुद से अधिक इस समाज की वजह से है. हालाँकि मेरा मक़सद वेश्यालयों की तरफदारी या उनकी हिमायत करना नहीं है न ही वेश्याओं और वेश्यालयों का महिमामंडन करना है. वेश्यावृत्ति ग़लत है और बंद होनी चाहिए, लेकिन इसके लिए इसमें लिप्त औरतों को अतिरिक्त दोषी न माना जाये. उन्हें भी वही सम्मान दिया जाना चाहिए जो उनके ग्राहकों यानी पुरुषों को मिलता है. उन्हें भी सम्मान पाने का उतना ही अधिकार है जितना अन्य महिलाओं को है, या शायद उनसे अधिक ही है. वैसे भी अभी इस सिक्के के एक पहलू यानि  भावनात्मक पहलू की बात की है.. उन परिस्थितियों का ज़िक्र कभी और होगा जिनमें एक “रंडी” रहती है, अपनी ज़िन्दगी बसर करती है और अपने बच्चे पालती है. हाँ, आप चाहें तो अंदाज़ लगा सकते हैं  कि किस तरह से एक दस बाई बारह कि कोठारी में छः-आठ औरतें एक साथ  रहती होंगी, किस तरह बीस औरतों का खाना एक आठ बाई पांच के किचन में बनता होगा और किस तरह चौबीस में से अठारह घंटे ग्राहकों के साथ गुज़ारने के बाद वो बचे हुए छः घंटों में बाकी ज़िन्दगी गुज़ारती होंगी.. किस तरह सारे नाते रिश्तेदारों और दोस्तों से उम्मीद ख़त्म होने के बाद ज़िन्दा रहने के लिए आखिरी सहारे की खोज में इन गलियों तक पहुँच जाती हैं, किस तरह अपने गाँव से नौकरी का झांसा दे कर यहाँ लायी जाती हैं और कुछ हज़ार में बेच दी जाती हैं, किस तरह जिस्मफरोशी के बाद जिस्म के पुर्जों की तस्करी के लिए उनके नोचे-खसोटे हुए शरीर को चीर फाड़ दिया जाता है.. किस तरह किसी ग्राहक के लात घूंसे खाने के बाद पुलिस सहायता पाने की जगह थानेदार के साथ बिना पैसे लिए सोना पड़ता होगा, किस तरह कोई ऊँच नीच होने पर सिस्टम भी मदद से इंकार देता है और किस तरह पैंतीस के बाद की उम्र कटती होगी जब ग्राहक उन्हें साथ ले जाने से इंकार देता है या फिर पैंतालीस के बाद उन्हें हाथ पैर तोड़ कर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है. किस तरह चौदह की उम्र में ओक्सिटोसिन के इंजेक्शन उन्हें बीद-बाईस का बना देते हैं और किस तरह उन्हें बाईस की उम्र में अपने ग्राहकों से मिलने से पहले अपनी छाती का दूध निचोड़ कर सुखाना पड़ता है जिससे उन्हें “शादी-शुदा” न समझा जाये, किस तरह वो रातें कटी होंगी जब उन्हें पता चलता होगा कि कोई ग्राहक अपनी निशानी उनके अन्दर छोड़ गया है जो उनके जीने का आखिरी सहारा उनका “करियर” ख़त्म कर सकता है.. किस तरह उनकी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा चेहरे की बजाय शरीर के “बाकी हिस्सों” के श्रृंगार, सर्जरी  और रख-रखाव पर खर्च हो जाता है और अपने लिए आखिर में एक मजदूर से भी कम पैसे बचते हैं, किस तरह उनके काम की अवैधता का फायदा उठाने के लिए सफेदपोश ग्राहकों के अलावा पुलिस और एनजीओ से ले कर नेता और डॉक्टर तक जीभ लटकाए तैयार खड़े रहते हैं, किस तरह उनके बच्चों को कोई स्कूल गंदगी कह कर दाखिला नहीं देता और उसी “गंदगी” में सड़ने के लिए मजबूर कर देता है. आप और मैं सिर्फ अंदाज़ लगा सकते हैं.. महसूस नहीं कर सकते .. लेकिन फिर भी, महसूस न कर पाएं तो क्या, कम से कम अंदाज़ तो लगा ही सकते हैं न.. शुरुआत करने के लिए इतना ही काफी है.

बाकी आपकी अपनी सोच है और मेरी अपनी.. मने जो है सो तो हइये है.

Monday 10 August 2015

सरकार और समानता : क्यों कि हम एक हैं

सात घोषणाएं जो एकता और एकरूपता बढ़ाने में मदद कर सकती हैं :

स्वतंत्रता दिवस आ रहा है, एक बार फिर, जैसे हमेशा आता रहा है 67 सालों से।  नया क्या होगा ? इस बार भी प्रधानमंत्री लाल क़िले की प्राचीर से डोरी खींचेंगे, इस बार भी प्रधानमंत्री देश को सम्बोधित करेंगे, एक आध या उससे अधिक वादे करेंगे और पूरा देश ड्राई डे और तिरंगे प्लास्टिक कूड़े की वजह से एक शक्ल में ढल जायेगा। टीवी और रेडियो गाने बजा बजा कर बताएंगे कि हम एक हैं ( और हमने आज तक एक के आगे गिनती ही नहीं सीखी; इसीलिए सारे टुकड़े खुद को एक ही गिनते हैं), समाचार चैनल और अख़बार वाले तमाम सामान्य  दिखने वाले लोगों द्वारा देश के नाम दिए गए बधाई सन्देश
दिखाएंगे जिसमें उन्होंने सवा अरब लोगों के ख़ास होने पर गर्व की अनुभूति होने की बात की होगी। हालांकि ये बात सच है की स्वतंत्रता दिवस को सिर्फ दो ही चीज़ें हमें पूरी तरह से एक करती हैं।  पहला, ड्राई डे और दूसरा हमारी नागरिकता। ड्राई डे तो सैलानियों को भी हम में मिला देता है।  वैसे अक्सर देखने में आया है कि इस दिन अपराध स्वतः कम हो जाते हैं।  होना भी चाहिए, सारे छुटभैये नेता अपने चेले-चपाटियों के साथ बड़े नेता जी के सामने हाजिरी बजाने जो जाते हैं।  मजदूरों और अमीरों का एक सा हाल रहता इ हैंस दिन।  घर और पेट सूखा रहता है।


क्योंकि हम आज़ाद हुए थे, इसलिए इस दिन जश्न ज़रूरी है।  विडम्बना ही है ये कि आज़ादी का जश्न मानना भी मजबूरी ही है। चाहे जितनी इच्छा हो, चाहे जितनी ज़रूरत हो , आप उस दिन काम नहीं कर सकते।  चूंकि हम आज़ाद हुए थे इसी रोज़, इसलिए हम पर आज़ादी का जश्न थोप दिया जाता है।  इसे मनाना भी मजबूरी है।  वैसे भी हमारे देश में आज़ादी मजबूरी से अधिक कुछ नहीं।
 खैर, इस स्वतंत्रता दिवस पर भी प्रधानमंत्री जी पिछले 67 सालों की तरह से हमें भरोसा दिलाने की कोशिश करेंगे कि हम एक हैं, हमने तरक्की की है. हमें एक बेहतर देश बनना होगा , हमें पहले की तरफ ही एक हो कर रहना होगा, वगैरह वगैरह।  लेकिन इस बार अगर प्रधानमंत्री जी इस तरफ भी ध्यान दें कि बाकि विषमताओं को किस प्रकार दूर किया जा सकता और इस बाबत कुछ अपील करें तो कितना अच्छा हो ? भारत का हर राज्य, हर शहर, हर घर और हर घर के अंदर बना हर कमरा अलग है।  अपने आप में कोई दो चीज़ें एक सी नहीं हो सकती।  इसलिए हम विषमताओं को सँभालने वाले देश हैं।  इतनी विषमताएं कहीं नहीं मिलती ( या शायद कोई इसका गाना नहीं गाता), वो बात अलग है कि बाकि देशों में भी ऐसे हालात हैं।  वहाँ भी विषमताओं के बाद एकता है।  उनके यहां भी अलग अलग भाषा-बोलियों के बाद भी देश एक है।  उनके यहां भी अपराध और अपराधियों की अलग अलग किस्मों के बावजूद तंत्र उदासीन है।  उनके यहां भी बेरोजगारी से ले कर अति कर्मठता की रेंज है लेकिन देश एक है।  हाँ, हमारे बीच अंतर हैं।  हमारे प्रधानमंत्री अलग अलग हैं।  हमारे राष्ट्रपति अलग अलग हैं।  हमारे संविधान अलग हैं। दीगर है कि इनके प्रति सम्मान और क्रियान्वयन की भावना एक ही है - मानव स्वाभाव की दिशा में।

 एकता जब तक पूरी तरह से हावी न हो तब तक एकता का कोई फायदा नहीं। इसलिये शीर्ष स्तर से शुरुआत होनी चाहिए। भारत का संघीय ढांचा भारत के अलग अलग राज्यों को एक साथ रखने में मदद करता है, भले ही सबसे अलग अलग व्यव्हार किया जा रहा हो।  थोड़ा भेदभाव , थोड़ा प्यार।  जैसे माँ बाप ढेर सारे बच्चे
पालते हों, ठीक वैसे।  इम्तेहान के वक़्त प्यार और बाकी वक़्त सबमें बराबर बाँट दो। खैर , हम बात कर रहे थे कि वो  घोषणाएं और अपील हो सकतीं हैं जो प्रधानमंत्री जी द्वारा की जा सकती हैं एकरूपता और एकता को थोपने के लिए, मेरा मतलब प्रोत्साहन देने के लिए।

1. किसानों के लिए एक समान उपेक्षा पालिसी :  देश में यूं तो कहीं भी किसानों के हालात अच्छे नहीं हैं।  चाहे वो पंजाब हो या बंगाल हो या आंध्र, किसान हर जगह उपेक्षित हैं।  चाहें वो कुछ करें या न करें , चाहें वो
रोबर्ट वाड्रा हो या गँजेद्र सिंह। किसान तंत्र, तांत्रिकों और तंत्रहीनों की तरफ से सर्वथा उपेक्षा का शिकार रहे हैं।  हालाँकि विदर्भ के किसानों ने उपेक्षा से बचने का मार्ग खोज निकाला और तड़ातड़ आत्महत्या कर के सुर्खियां बटोर ली। किसान हर जगह तवज्जो पाने लगे।  मीडिया, सोशल मीडिया, फिल्म आदि। इससे किसानों की एकरूपता में खलल पड़ा और सरकार ने पंजाब में राहत पैकेज दे कर और कुछ जगहों पर दो दो रूपए के  चेक बाँट कर समानता लागू करने की नाकाफी कोशिश की।  लेकिन अभी भी किसानों का एक बड़ा तबका उपेक्षित हैं और इसलिए प्रधानमंत्री जी अपील कर  सकते हैं कि देश में बहुमत प्रणाली का सम्मान करते हुए अन्य किसानों से तवज्जो पाने का अधिकार छीनते हुए किसानों के बीच एकता का सन्देश दिया जाये।

2 . अफस्पा को पूरे देश में लागू करने की अपील : एक आश्चर्यजनक आंकड़े के अनुसार जिन राज्यों में अफस्पा लगा है वहाँ किसी भी तरह की अपराधिक गतिविधियाँ बाकि राज्यों की तुलना में नगण्य हैं। अफस्पा शासित राज्य, माफ़ कीजियेगा , अफस्पा लागू करने वाले राज्य अधिक शांतिपूर्ण और अनुशसित जीवन बिता रहे हैं। चाहे कोई भी राज्य हो पूर्वोत्तर का, अपराध दर सामान्य से कम ही है।
 इन राज्यों में बलात्कार और हत्या, राहजनी की, लूट पाट की कितनी घटनाएं सुनी हैं आपने।  जबकि वो सभी राज्य जहां अफस्पा लागू नहीं है, वहाँ आये दिन, दंगे, लूट पाट , हत्या- बलात्कार की सूचना मिलती रहती हैं।  आये दिन विरोध प्रदर्शन होता  लोग सड़कों पर उतर आते हैं।  आये दिन लाठी चार्ज और  वाटर केनन के इस्तेमाल की खबर मिलती  रहती है।  क्यों न पूरे देश में अफस्पा लागू कर दिया जाये और नागरिक अपराधों को काम की बजाय न्यूनतम तक सीमित करने की कोशिश की जाये।  वैसे भी देश में अफस्पा के समर्थक बहुत बड़ी संख्या में हैं।  इसका एक अतिरिक्त फायदा ये होगा कि सेना की पहले से मौजूदगी से प्राकृतिक आपदाओं के वक़्त जानमाल का नुकसान कम होगा।

3 . चुनाव का आधार मतदान की जगह पार्टी सदस्यों की संख्या को बनाया जाये : देश की निर्वाचन प्रक्रिया काफी समय से विवादों में है।  कहते हैं कभी 23 % पाने वाला नेता बन जाता है तो कभी 33% पाने वाला।  ऐसे में भरी विरोधाभास तब उत्पन्न हो जाता है जब चुनना तो एक प्रधानमंत्री को होता है, लेकिन वोट अजीब से दिखने वाले लोगों को देना पड़ता है।
 क्यों न यूं किया जाये कि जनगणना के वक़्त राजनीतिक रुझान पूछ लिया जाये और उसके बाद पूरे देश में सबसे अधिक सदस्य संख्या रखने वाली पार्टी को सरकार बनाने का अधिकार दे दिया जाये।  अरबों रूपए की  निर्वाचन प्रक्रिया को कुछ करोड़ के शपथ ग्रहण तक में सीमित किया जा सकता है। राज्य स्तर पर भी यही प्रक्रिया अपनायी जा सकती हैं। इस तरह देश में व्याप्त एकता विरोधी दुविधाजनक प्रश्न का बहुउद्देशीय हल निकला जा  सकता है।  जनता के बीच वैसे भी वोट देने को उत्साह कम ही रहता है।  अतः उनके मनोभावों को समझ कर पूरे देश में वोट ने देना कर्त्तव्य बना दिया जाये।  जनतांत्रिक सरकार का ये स्वरुप विश्व में पहला होगा और हम  एक परिपाटी शुरू करने वाले बन जायेंगे।

4 . प्राइवेट कर्मचारियों के लिए रिश्वत की अनिवार्यता लागू की जाये : देश में तीन तरह के लोग हैं रोज़गार के मामले में।  आश्वस्त रोज़गार, शाश्वत रोज़गार और ब्रह्म रोज़गार।  आश्वस्त रोज़गार वाले वो हैं जिन्हें रोज़गार का  आश्वासन तो मिला है लेकिन रोज़गार के लिए रेज़गारी पर निर्भर हैं।  ये लोग भीख मांगना, मजदूरी करना या दलाली करने का काम  करते हैं।  इसलिए इनकी आमदनी को मोटे तौर पर रिश्वत की केटेगरी में रखा जा सकता है।
 सरकारी कर्मचारी ब्रह्म रोज़गार की श्रेणी में आते हैं जहां इनके पास सबसे अधिक अधिकार और सुविधाएं होती हैं इसलिए इनके बारे में कुछ नहीं बोलूंगा।  अकेलापन असल में शाश्वत रोज़गारियों को महसूस होता है जिनकी किस्मत में सिर्फ काम लिखा है।  बेचारों के पास तो अपना कमाया पैसा खर्च करने का भी वक़्त नहीं है।  दूसरी तरफ बाकियों  इतना वक़्त होता है कि अपना कमाया मूल धन खर्च कर लें और साथ  साथ ऊपर की आमदनी भी कर लें।  इसलिए कर्मचारियों में व्याप्त इस भारी विषमता को ध्यान में रख कर प्राइवेट कर्मचारियों को ऊपर की आमदनी से महरूम रखने की मुख़ालफ़त करते हुए रिश्वत को अनिवार्य बनाया जाये।

5.  भारत को धार्मिक देश और नास्तिकता को अपराध घोषित करना :  प्राचीन काल से आज तक हमें एक सूत्र में पिरोने का काम सिर्फ धार्मिकता ने किया है।  चाहे वो सनातन धर्म हो या इस्लाम या फिर बौद्ध धर्म , सबने भारत के धार्मिक ढांचे में भरपूर योगदान दिया है और भारत को धर्मप्रधान देश बनाये रखा।  ये कवायद यहां तक सफल हुयी कि जब भारत ने अपना पहला टुकड़ा खोया तो वो धार्मिक देश के रूप में था।  संविधान हालाँकि जो बात कहता है वो मेरी
समझ से ये है कि भारत सभी धर्मों का समान रूप से आदर करेगा और जगह देगा।  अगर सच में ऐसा है तो भारत स्पष्ट तौर पर एक धार्मिक देश है  जो असल में बहुधर्मीय है।  इसलिए नास्तिकता इस देश की संस्कृति और धरोहर से खिलवाड़ है।  ये देखते हुए नास्तिकता को अपराध और भारत को स्पष्ट तौर पर धार्मिक देश घोषित करना चाहिए। ( पहले धार्मिक तो बनाइये, सनातनी बाद में बना लेंगे।  समझ रहे हैं न बात को )

6. हिंसा-आतंकवाद को राष्ट्रीय स्वरुप प्रदान 
करना : मुझे आशा है प्रधानमंत्री जी उन राज्यों को  आतंकवाद और दंगों का सुख भोगने के लिए प्रोत्साहित करेंगे जिनमें हिंसा अब तक सिर्फ छोटे मोटे अपराधों और धार्मिक-सांप्रदायिक स्वरुप में फैली है। आतंकवाद जैसे प्रत्यक्ष सुनियोजित स्वरुप को व्यापक बना कर लोगों को समझाने में सफल होंगे कि सेनाएं हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं।  गोवा और मध्यप्रदेश जैसे इलाकों में भी  रक्षा बजट का हिस्सा बनता है।  इसलिए प्रधानमंत्री जी से अपील उम्मीद है जिससे राष्ट्रीय एकरूपता को बढ़ावा मिले।

7. हर राज्य में घोटालेबाजों का सामान्य वितरण :  पिछले कुछ समय में देखने में आया है कि घोटालों का स्तर हर तरह से बढ़ा है। मुद्रा स्तर पर भी और क्षेत्रीय विस्तार के सन्दर्भ में भी।  लेकिन अजीब बात ये है कि घोटालेबाजों का कुछ चुनिंदा प्रदेशों और पार्टियों तक ही सीमित रहना।  एकरूपता के लिए ज़रूरी है कि सभी राज्यों में घोटालों और घोटालेबाजों का समान रूप से वितरण हो। असमान्य वितरण एकरूपता-एकता अभियान के विरुद्ध है।
पूर्वोत्तर और कश्मीर, केरल और गुजरात जैसे राज्य घोटालों के लिए पालक पांवड़े बिछाये इंतज़ार कर रहे हैं।

इसकेअतिरिक्त कई अन्य उपाय और घोषणाएं हैं जो भारत को एकता के आवरण में ढक सकती हैं , लेकिन, पिक्चर अभी बाकी है दोस्त!! अगले 25 साल हैं अभी तो सरकार के पास।  इस साल के लिए इतना ही काफी होगा।

(फोटो स्रोत : गूगल)


Friday 7 November 2014

फुटकर माल...

1)
खोया - पाया
का इश्तेहार देखा,
याद आया ,
मैंने भी अरसे पहले,
एक इश्तेहार दिया था !
" खो गया हूँ मैं "
कहीं मिलूँ गर,
तो आ कर मुझे दे जाये,
इनाम,
ज़िन्दगी मेरी,
अब सोचता हूँ,
क्या मुझे,
कोई और भी
खोजता होगा ?

2)
सुनो ,
एक बात बताता हूँ आज,
धीरे से कान में,
इधर आओ,
हाँ,
अब सुनो,
बात ये है कि 
कल तक तुम
हमें बेहद अजीज़ थे ...
और दिल कहता है,
कल भी रहोगे,
पर दिल से बड़ा झूठा,
कौन हुआ है दुनिया में


3)
राह-ए -शौक की बस इतनी इन्तेहाँ है,
आज नज़र यहाँ है , कल को वहाँ है ... 

हकीकत क्या बयाँ करे तुमसे हम, 
सपनो का समंदर है , किश्ती में जहाँ है 

एक गुमां साथ है कब्र में अरसे से, 
मिटटी के पार जो था, अब वो कहाँ है ?

Thursday 8 May 2014

क्या दिल्ली ... क्या लाहौर ... लकीरें ही तो हैं ..



लगभग साल भर से अधिक हो गया था ब्लॉग पर कुछ पोस्ट किये हुए. सबने कहा कुछ ब्लॉग पर भी लिख लिया करो, लेकिन इतनी लम्बी पोस्ट दिमाग में आ ही नहीं रही थी.. एक दो दफे आई भी तो अकेली ही आई.. बाकि  संगी साथियों को कहीं छोड़ आई .. बुआ की घुड़की, चाचू का आदेश , अभिषेक भैया, शेखर भाई, मुक्ति दीदी और शिवम् दद्दा की पोस्ट्स भी कारगर नहीं हुयी .. फिर कल रात अचानक रश्मि दी का स्टेटस पढ़ा .. क्या दिल्ली क्या लाहौर फिल्म वाला. शुरुआत ने ही दिमाग की बत्ती जला दी.. गुलज़ार के लफ्ज़ आँखों तक को अजीब सा सुकून देते हैं ..

लकीरें हैं तो रहने दो,
किसी ने रूठकर, गुस्से में शायद खींच दी थीं....


अजीब कशिश हैं इन शब्दों में ... एक वक़्त था .. जब ये जुबान पर लार की तरह चढ़े हुए थे ..समय के साथ उतर भी गए .. लेकिन गुलज़ार तो हमेशा ही गुलज़ार रहे हैं. भूलना नामुमकिन हैं उन्हें, बस याद आने की देर थी.. फिर तो गुलज़ार ही गुलज़ार हैं कल रात से .. बज बज के स्पीकर को पसीना आ गया .. लेकिन दिल है की मानता नहीं ...
इस पोस्ट ने कुछ यादें ताज़ा कर दीं .. पाकिस्तान .. हिंदुस्तान .. बहुत कुछ....
बात ऑरकुट के ज़माने की है. जैसे सभी अलग अलग नाम रखते थे, वैसे ही मेरा भी नाम असल न होकर स्टाइलिश टाइप था ...Indominant_Man...हम तीन दोस्त थे, दो लड़के, एक लड़की .. नाम नहीं जानते थे एक दूसरे का, पता भी नहीं .. सिर्फ उम्र, पसंद, काम वगैरह ... हमारे बीच एक अघोषित समझौता था कि कोई किसी की पहचान जानने की कोशिश नहीं करेगा.. तो इस तरह हम तीन थे.. मैं यानि Indominant_Man, Cute Tigress  और Black Hawk.. तीनो के अलग अलग शौक.. सिवाय दो के जो कॉमन थे ..क्रिकेट और म्यूजिक ...खूब मस्ती होती थी .. स्क्रैप स्क्रैप खेलते थे .. अन्ताक्षरी और क्रिकेट भी हो जाता था ऑनलाइन ... बहुत ही अच्छी दोस्ती हो चुकी थी हमारी.. Black Hawk थोडा राष्ट्रवादी टाइप था और अक्सर हमसे उसकी बहस हो जाया करती थी की एशिया में अमेरिका क्या चाहता है वगैरह वगैरह ..मैं और Cute Tigress  एक तरफ रहते थे और हम अमेरिका के मन की न जान पाने का अफ़सोस न करते हुए खुद को देश के काबिल बनाने की सोचते थे.. वहीँ Black Hawk हमेशा अमेरिका को सबक सिखाने जैसी बातें किया करता था. कट्टर होने जैसी दुर्गन्ध आने लगी थी जो हमारी दोस्ती में कडवाहट लाती जा रही थी .. Cute Tigress  भी परेशान थी और मैं भी .. उम्र भी ज्यादा नहीं थी कि हम ऐसे मामलों की पेचीदगी समझ पाते. खैर, एक दिन मैंने अपनी तस्वीरें पोस्ट की .. तस्वीरों को देख कर पता चल गया की मैं हिंदुस्तान में रहता हूँ.... Cute Tigress  जहां इस बात से खुश थी कि उसका कोई अच्छा दोस्त भारत में भी है वहीं Black Hawk बेहद दुखी .. उसने दो दिन बाद मुझसे बात करना बंद कर दिया. Cute Tigress  की पहल पर एक बार फिर बात हुयी तो पता चला की Black Hawk और Cute Tigress  दोनों पाकिस्तान के रहने वाले हैं. Black Hawk इस्लामाबाद और Cute Tigress  कराची की रहने वाली थी. उस दिन Black Hawk ने साफ़ शब्दों में कह दिया कि वो एक हिन्दुस्तानी से बात नहीं कर सकता.. बुझे मन से हम दोनों ने अलविदा कहा ...और Cute Tigress  के साथ भी दोस्ती लगभग डेढ़ महीने बाद ख़त्म हो गयी. उस दिन से इस बात का हमेशा अफ़सोस रहा कि काश हमने अपनी पहचान न बताने की सोच कायम न की होती.. काश हमने एक दूसरे के बारे में जान कर दोस्ती की होती तो शायद आज दो अच्छे दोस्त न खोता .. दो देशों के बीच कम से कम एक इन्सान के हिस्से का प्यार तो दे पाता..ऐसे बहुत से मलाल आज भी यादों की गलियों में टहलते मिल जाते हैं.. लेकिन क्या करें.. जो होना था वो तो हो चुका था.

उसके बाद तमाम दोस्त बने .. तमाम छूटे भी, लेकिन कसक रह गयीउसके बाद बहुत से किस्से हुए भारत पाकिस्तान से जुड़े हुए .. लेकिन जब भी दोस्त और इन दो देशों का ज़िक्र आता है, बरबस ही एक मायूस हवा साँसों में घुल जाती है ...हौले से... विभाजन का दंश सिर्फ हमने नहीं झेला ... नफरत सिर्फ हम नहीं झेलते ... सैनिक सिर्फ हमारे नहीं मरते .. मरता तो है लेकिन तिल तिल कर किसी का ज़मीर ,,, उस पर जब गुलज़ार साहब ऐसी कोई नज़्म लिख देते हैं तो बरसों तक उस दर्द की टीस जाती नहीं .. बस जाती है ...
बहुत पहले लिख चुका था ... फिर से पढ़िए ,, :)  जानता हूँ .. अच्छी नहीं है .. लेकिन झेलना तो पड़ेगा ... :-P





सरहद :

कानो में आवाज़ पड़ी कई दफे ,
जो दुनिया में आता है,
एक ना एक दिन वो चला जाता है,
लेकिन एक सवाल टहलता है ,
ज़हन की गलियों में अक्सर,
सरहदों को जवाँ होने क्यूं दिया जाता है ???

कहते हैं लोग अक्सर दबे छिपे,
कोख में ना मरो इक जान को,
कितने ही पर्चे ,कितने परदे
रंग डाले सिखाने को ये बात इन्सान को,
बेजन्मी जान के लिए इतना कुछ किया जाता है.
कोई बताये, जिंदा रूहों के कौम में ,
सरहदों को पैदा होने ही क्यूं दिया जाता है ???

कहते हैं आबादी बढाओगे ,
तो दुनिया की बर्बादी बढाओगे ,
जितनी ज्यादा गिनती होगी ,
कम-असर रब से उतनी ही अपनी विनती होगी ,
लेकिन एक जवाब जो मेरे दर तक नहीं आता है,
सरहदों को धरती की कोख में ,
आखिर कोई ले कर ही क्यूं आता है ???

आखिर इन्सान इधर भी रहते हैं ,
आखिर इन्सान उधर भी रहते हैं ,
वही हवा ,वही फिजा,
वही बदल. वही धुंआ,
वही आग और वही पानी से नाता है ,
तो फिर,परदेस से आने वाला आमिर कोई,
किसलिए रिश्ते नहीं, सरहदें मज़बूत बनता है????    (आमिर= leader)

पल दो पल रुक जाता है,
अमन का कारवां किसी शहर में ,
दो पल खुशियाँ बिखेर कर,
दो पल चैन सुकून मकबूल कर कर ,
राह जो अख्तियार की थी, करनी है ,
उससे भूल कर किसी दूसरे जहाँ में भटक जाता है ,
और जाते जाते तोहफे में ,
एक नयी सरहद दे जाता है ,
एक नयी सरहद दे जाता है .....


(https://m.facebook.com/notes/nitish-k-singh/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%A6/10150295270164355/?refid=21 )