हर शहर का एक फ़साना होता है,
हर बाशिंदे का एक ठिकाना होता है,
बेहद ऊँची होती है यूं तो परवाज़ परिंदों की ,
लेकिन शाम ढले शजर पर वापस आना होता है,
एहतराम-ए-जहान किया हमने बहुत,
किसी को खता लगी, किसी को सबाब ,
ज़माने की रवायतें यूं तो हज़ार होती हैं,
लेकिन हर रवायत का एक ज़माना होता है,
एक एक जान के पास है तमाम ज़लालतों की मिल्कियत,
हर बशर को कदम दर कदम ठोकरें खाना होता है,
वजूद पर सवाल करती रहती है जिंदगानी भी,
बिसात क्या है उसकी उसे भी ये बताना होता है ,
अकीदतें अता की ज़माने को जेबें भर के हमने ,
पर खुलूस-ए-ज़िन्दगी मयस्सर ना हुआ ,
खतावार तो वक़्त के नश्तर भी नहीं थे ,
आबशार-ए- लहू में उम्मीदों को, उसे भी नहाना होता है ,
महरुफियत खूब तख्सीम की मालिक ने जहान में ,
मुख्तासिर सा पुलिंदा हमें भी दे दिया होता
पुर्सुपुर्दगी ही बख्श दी होती , मौजों में बहने की,
तस्सव्वुर तक ना करने दिया , क्या जशन दिल का लगाना होता है .
हर बाशिंदे का एक ठिकाना होता है,
बेहद ऊँची होती है यूं तो परवाज़ परिंदों की ,
लेकिन शाम ढले शजर पर वापस आना होता है,
एहतराम-ए-जहान किया हमने बहुत,
किसी को खता लगी, किसी को सबाब ,
ज़माने की रवायतें यूं तो हज़ार होती हैं,
लेकिन हर रवायत का एक ज़माना होता है,
एक एक जान के पास है तमाम ज़लालतों की मिल्कियत,
हर बशर को कदम दर कदम ठोकरें खाना होता है,
वजूद पर सवाल करती रहती है जिंदगानी भी,
बिसात क्या है उसकी उसे भी ये बताना होता है ,
अकीदतें अता की ज़माने को जेबें भर के हमने ,
पर खुलूस-ए-ज़िन्दगी मयस्सर ना हुआ ,
खतावार तो वक़्त के नश्तर भी नहीं थे ,
आबशार-ए- लहू में उम्मीदों को, उसे भी नहाना होता है ,
महरुफियत खूब तख्सीम की मालिक ने जहान में ,
मुख्तासिर सा पुलिंदा हमें भी दे दिया होता
पुर्सुपुर्दगी ही बख्श दी होती , मौजों में बहने की,
तस्सव्वुर तक ना करने दिया , क्या जशन दिल का लगाना होता है .
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