Wednesday 7 September 2011

एक पैगाम.. ऊपरवाले के नाम ....

आँखें रोती हैं बेबस, आंसूं नहीं निकलतें हैं,
दिल मासूम तड़पता है यारों के लिए,
वक़्त के ज़ालिम पत्थर, इक बूँद भी ना पिघलते हैं ,

वक्तगी ने पीछे छोड़ दिया है उन लम्हों को ,
कमबख्त दिल ही ना भुला पाया है ,
ज़हन समझाता है बार बार, फिर भी ,
नासमझ दल आज फिर उन यादों को बुला लाया ,

कैसे समझाउं उन्हें ,उनके बिना ये ज़िन्दगी,
बेवजह अधूरी तलाश सी है ,
जिंदा दिखता है ये जिस्म आँखों को,
रूह तो अब इक लाश सी है ,

हो जा थोडा तो मेहरबान ,
आज बस इक बार को ए वक़्त हम पर ,
फिर चाहे ताउम्र ज़लालतें- ज़िल्लतें देना ,
या कर लेना जी भर कर सितम हम पर,

वो यार थे ही ऐसे, जिस्म की जान के जैसे,
फ़कीर को मौला मिले यूं,
ज़मीर को ईमान मिले जैसे ,
पंडित को गीता और मुल्ला की कुरान के जैसे,

गर एक बार दोस्त मिल जायें ,
एक रोज़ को ही  सही, फिर से जी जाऊंगा ,
दो पल खुशियाँ बिखेर कर, अँधेरे की तरह,
सुबह उनके साथ जहाँ से रुखसत हो जाऊंगा .....

No comments:

Post a Comment

तह-ए- दिल से शुक्रिया ..आप के मेरे ब्लॉग पर आने का , पढने का ,..और मेरा उत्साहवर्धन करने का। आपके मूल्यवान सुझाव, टिप्पणियाँ और आलोचना , सदैव आमंत्रित है। कृपया बताना न भूलें कि आपको पोस्ट कैसी लगी.