Monday 21 January 2013

..मुशर्रफ भी आ जायें !!

कुछ बुद्धिजीवी मिले कल शाम रस्ते में, बस में सफ़र के दौरान। लम्बे चौड़े दावे, आंकड़े बांचते हुए। इक पल को तो चिढ सी हुयी, फिर सोचा सफ़र काटने के लिए मनोरंजन अच्छा है, सो सुनने लगा उनके दावे, वगैरह। एक सज्जन जो थोड़े परनब मुखर्जी टाइप थे, बड़े गौर से सबकी बात सुनते फिर उवाचते थे, वहीं दुसरे मुल्ला जी ( कठ्मुल्ला छाप दाढ़ी , पतली मुंशी छाप ऐनक , और जारी-कढाईकारी वाली टोपी थी इसलिए मुल्ला जी ही होंगे ,ऐसा मेरा सशक्त भ्रम है) पान की पीक को एक गाल से दुसरे की तरफ लुढ़काते हुए मज़े ले रहे थे। लेकिन जो सज्जन सबसे ज्ञानी थे वो तीसरे महाशय थे, टी-शर्ट,कोट , जीन्स और सूर्य प्रतिरोधक यन्त्र आँखों पर चढ़ाये हुए माशाल्लाह किसी तुषार कपूर से कम नहीं लग रहे थे। ( तुषार कपूर को तो जानते होंगे न आप )
खैर, बातों का मुद्दा था सामाजिक बदलाव की बहती गंगा में राजनीती की भूमिका, ( जिसमें समाज के बारे में चर्चा नदारद थी)
पहले सज्जन ने मुह खोला : राहुल गाँधी उपाध्यक्ष बन गए।
दोनों हंसने लगे। पहले वाले सज्जन चुप हो गए। थोड़े विराम के बाद तीसरे के बोल फूटे- " सिर्फ उपाध्यक्ष बनने से हमको घोर निराशा हुयी है, उनके पिता जी सीधे प्रधानमंत्री बने थे, और एक ये हैं ..!!! खैर, अब बन ही गए हैं, देर सबेर तो ये होना ही था। आखिर राहुल गाँधी हैं भाई !!
दूसरे सज्जन ने खिड़की खोल के बाहर के वातावरण से पीक के बदले ढेर सारी ठंडी हवा का का आदान प्रदान करने के बात मुह पोंछते हुए कहा -" देखिये , हमें तो सिर्फ सुधरने से मतलब है , वोट काहे लिए देते हैं ?? चाहे वो राजीव गाँधी सुधारे , राहुल गाँधी सुधारें , या नरेन्द्र मोदी ...अगर मुशर्रफ भी आ कर यहाँ के हालत सुधारते हैं तो हम उसमे भी खुश हैं।
दोनों सज्जन मुल्ला जी का मुंह देखने लगे।
सच ही है, जनता को सुधरने से मतलब है, यहाँ तक की दुश्मन से भी आस लगा सकते हैं, लेकिन खुद कोई पहल करने की न इच्छा है, न दम ... लेकिन सुधार चाहिए ...आखिर टैक्स भरते हैं न हम लोग!!
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लम्हों की दास्ताँ है ये ज़िन्दगी,
तुम सिर्फ लम्हों की बात करते हो,
दास्ताँ को मत भूलो,
क्यों कि अरसे के बाद,
सिर्फ दास्ताँ याद रहती है,
और लम्हे बीत चुके होते हैं ,,,,
जो बदल सको तो खुद को,
बदलने की कोशिश करो ,
शायद ये ज़िंदगी भी बदल जाये ,
तुम शिकायत करते हो,
वक़्त बदल गया है ,
ज़माना बदल गया है ,
ज़िन्दगी बदल गयी है ,
लेकिन तुम खुद नहीं बदले क्या ?
हर रोज़,
आइने के सामने खड़े हो कर ,
इल्तजा करते हो,
इसी वक़्त, ज़िन्दगी और ज़माने से,
मुझको बदल दो,
तुम बदल जाते हो,
अपनी इल्तजा खुद सुन कर,
और दोष ज़माने को देते हो,
ज़िन्दगी को देते हो,
वक़्त को देते हो,
आज का वजूद नकार कर,
अतीत में टिके रहते हो,
कल में खोये रहते हो,
फिर भी कहते हो,
ज़िन्दगी से कुछ हासिल न हुआ,
वक़्त से कुछ फ़ाज़िल न हुआ ,
अगर आज को देखो,
कल खुद बदल जायेगा ,
वक़्त बदल जायेगा,
ज़माना बदल जायेगा,
ज़िन्दगी बदल जाएगी,,,
और लम्हे भूल जायेंगे ,
कल सिर्फ दास्ताँ रह जाएगी ..
दास्ताँ रह जाएगी ....

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