Thursday 31 January 2013

चाँद, मैं और औकात ..

जाने किस बात की शर्म करता है इन्सान , जाने किस बात के गुरूर करता है वो। मैं आज तक समझ नही पाया .. दोमुहा व्यव्हार किसके लिए? किस से मुह छिपता है ? किस पर रोब  गांठता है ?  खैर .. डरें नहीं!! ये मैं आपसे नहीं पूछ रहा .. ये तो कल मैंने यूं ही खुद से थोड़ी तफरीह लेने के लिए किया था .. हुआ यूं के मैं कल आईने के सामने खड़ा था और कुछ नयी खुराफात नहीं सूझ रही थी। पहले बड़ा शौक हुआ करता था आईने के सामने यूं दिखना , वो पोज मारना। अब दुनिया के सामने इज्ज़त का फालूदा करने से तो बेहतर आइना ही था। कम से कम हँसता तो नहीं था , और मेरे मन मुताबिक दिखता-दिखाता भी था। तभी, अचानक मन में आया, आज खुदसे सवाल करते हैं। शायद इस बार दिल जीत जाए, पर कम्बख्त इस बार फिर दिल हार गया , दिमाग जीत गया तर्क की बाजी। कुछ सवाल छोड़ गया .. कुछ जवाब ले गया।

तुम्हारे ख्यालों में बसे ,

मेरे ख्यालों की सूरत सा,
चाँद भी धुंधला सा है,
कोहरा है शायद,
इसलिए दिखता कम है आसमान ,
रात ही स्याह नहीं होती ,
दिन भी काले होते हैं ,
जैसे पेड़ों पर  सिर्फ पत्ते नहीं उगा करते ,

दूध के जैसे सफ़ेद होने लगे हैं,

कोयले के टुकड़े,
और
ईमान भी मांस जैसा है,
बिकता है,
कटता है,
पकता है,
बचा खुचा कुत्तों के आगे
डाल दिया जाता है
हड्डियाँ चूसने और फिर
सूंघ कर छोड़ देने के लिए,

कल सड़क के किनारे

एक भिखारी चीख रहा था ,
मैं मांगता तो हूँ मुह खोल कर,
अपनी औकात तो पता है मुझे ,
और आने जाने वाले
कान और आखें झुकाए
सर उठाये शान से ..
चले जा रहे थे .....
अपने घरों की ओर ..