Monday 4 February 2013

डायरी

अक्सर लोगों को बताते सुनता था , देखता था  और देखते देखते खुद भी शौक पाल बैठा एक डायरी का। लगभग दस बारह साल पुरानी बात है, मैं दसवीं या नौवीं में था शायद। पापा की लाई हुयी एक ठीक ठाक सी डायरी मेरे हाथ लग गयी, और यूं शुरू हुआ डायरियों के साथ मेरा रिश्ता। चोरी से। पापा को लगता था अगर बेटा डायरी लिखता है तो ज़रूर कोई बात है जो बेटा छुपा रहा है या बताना नहीं चाहता। ऐसा नहीं था की वो मुझ पर शक करते थे , लेकिन उन्हें इस बात का पूरा ख्याल रहता था कि वो और मम्मा मेरे सबसे अच्छे राजदार बने रहे। खैर , सिलसिला चलता रहा, डायरियां भरती गयीं, वक़्त चलता रहा। कुछ लोग मिले , कुछ फिसलते गए हाथों से, ....और आज पुरानी डायरियों को देखता हूँ तो सिर्फ यादें ही ज़हन में नहीं आतीं बल्कि हर एक लम्हा रूबरू हो जाता है , एक फिल्म की तरह।
फ़िलहाल ..... वैलेंटाइन वीक आने वाला है ... थोडा सा रूमानी हो जाते हैं !!


पुरानी सी डायरी,
उसमें रखा वो फूल,
जब देखता हूँ उन्हें,
तुम तक पहुँचता हूँ,
जहां तुम दरवाज़े से
मुझे लौटा कर
आवाज़ लगाती हो,
फिर धीमें से कानो में
फुसफुसाती हो
सूखे फूल हैं,
सिर्फ डायरी के ही काम आएंगे
यादें संजोने के लिए,
बनाने वाले ने भी,
क्या खूब चीजें  बनायीं है ,
एक डायरी , और ,एक तुम 
एक वक़्त समेट लेती है ,
और एक मुझे समेट लेती है ,
तुम आज भी
मेरी डायरी में कैद हो ,
और मैं तुम में ,
जो निकल आओ ,
तो यकीन आये ,
ज़िन्दगी कागजों से इतर भी है ..
ज़िन्दगी लफ़्ज़ों  के भीतर भी है ...