Friday 26 August 2011

रात का साया ...

रोज़ रात को,
वो तन्हाई की चादर ,
जब अँधेरे से कदम ताल करती ,
बदन ढकने को,
उतावली हो उठती है,
तब फिर वो यादें
सहारा बनती हैं ,
अकेलेपन से बचाने को ,
आँखों के सामने,
रेंगने लगती हैं ,
हमेशा की तरह ,
और अंतर्मन के चीथड़े का ,
वजूद धीमे धीमे
ख़त्म होने लगता है
मानो सब कुछ ,
मुझे बेबस करने को,
अपने साथ चलने को,
उस काली रौशनी क पीछे,
हमेशा की तरह......

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